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________________ स्कन्धाचार्य - कार को दी गई। हुई,दण्डकारण्य कार का पु शील, धर्म-भीम, दयावान्, विद्वान् , विवेकशील और परम मातृ-पितृ-भक्त थे। पुत्री जय विवाह के योग्य हुई,दण्डकारण्य के महागज 'कुम्भकार को दी गई । एकदिन महाराज कुम्भकार का पुगहित. पालक, सावाशी में श्राया। समय पाकर, एक दिन, उसने एक सभा में, अनेकों प्रकार की कुयक्तियों से, नास्तिक मत का मण्डन कर, उसका प्रचार करना चाहा। परन्तु विद्वान् स्व.न्ध-कुमार के शास्त्र-सम्मत तथा अकाट्यप्रमाणों के प्रांग.पालक के पैर उखड़ गये। उसे भरी सभा में, लन्जित हो कर, कुमार के सामने अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी। फुमार न उस की प्रत्येक कु.युक्ति का , व्यवहार और सिद्धान्त दोनों को साथ रख कर, या मुँह-तोड़ उत्तर दिया, कि जिसे देख कर सारी सभा दंग-सी रह गई । यस, उसी पलक से पालक, कुमार का कट्टर शत्रु बन गया। उस के मन में, ईर्ष्या उमढ़-उमड़ कर उछलने लगी । वह वहाँ से अपने गज्य में श्राया। और, दिन-रात इसी चिन्ता में रत रहने लगा, कि कुमार को अपनी करणी का मज़ा कैसे चखाया जाय । इधर, कुमार ने, किसी एक दिन, भगवान मुनि सुव्रत स्वामी का उपदेश सुन लिया। जिसके कारण, संसार की श्रसारता का बोध उन्हें हो गया। उन के साथ, उस समय, अन्य चारसी निन्यानवे साथी राजकुमार भी थे। उन का भी वही हाल हुश्रा । तव तो इन सभी ने दीक्षा ग्रहण कर ली। और, ये सब के सब अपने जप, तप तथा संयम में निमग्न रह कर, इधर-उधर विचरण करने लगे। एक दिन, मुनि स्कन्धाचार्य ने, दण्डकारण्य प्रदेश में जा कर, अपनी सांसारिक बहिन को प्रतिबोध करने की बात सोची । इस के लिए, भग [७]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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