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________________ ललितांग-कुमार इस हृदय-विदारक हत्या काण्ड के पाप से भयभीत हो कर, जनता शहर को खाली कर निकले जा रही थी। रास्ते चलते हुए एक राहगीर ने कुमार को भी नगर में जाने से रोका । परन्तु परोपकार-परायण पुरुषों का जीवन तो पराया ही के हित के लिए होता है। नगर में प्रवेश उन्हों ने किया। जाते ही 'फुली' नामक एक मालिक की आँखों को अच्छा उन्हों ने किया । वह जन्मान्ध थी । रानी के पास दौड़ी हुई वह गई। उस राम-बाण औषधि की प्रशंसा उस ने वहाँ की। प्रत्यक्षं कि प्रमाणं । रानी ने चट राजा के सामने उस बात को रक्खा । पहले तो कई प्रकार की शंकाएं उस ने की । “ बड़े-बड़े भिषगाचार्य और सर्जना की कुछ करामात सफल जहाँ न हुई, साधारण वैद्य की तो फिर विसात ही वहाँ कौनसी है ! अच्छा, उस के भी मन की कर लेने दो। " यह कह कर नरेश ने कुमार को बुला भेजा । कुमार ने पधि ांजी। थोड़ी ही देर में कन्या की आँख कुन्दन बन गई। बदले में, कुमार का, राजा श्राजीवन ऋणी हा गया । उस कन्या का पाणि-ग्रहण भी, उसी दिन, कुमार के साथ हो गया। यही नहीं, प्राधे राज का अधिपति भी, जित-शत्रु ने उन्हें बना दिया। कुमार की, फिर स. काया-पलट हो गई। जिस प्रकार, पुनः उन की पदवृद्धि हुई, उसी प्रकार, अपनी परोपकारमयी भावना को व्यावहारिक वृद्धि का रूप उन्हों ने दे दिया। कुमार और कुसुमावती श्रव यानन्द-पूर्वक दोनों रहने लगे। उधर, सज्जन की करणी भी श्रव फूलने-फलने लगी। अन्नधन से यह क्षीण हो गया । अब भीख ही उस के जीवन का श्राधार थी। होते-होते, एक दिन भीख के हित वह उसी वस्ती [.१३
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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