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________________ जैन जगत् के उज्ज्वल तारे की वात काट कर, वीच ही में एक दुसरा हंस बोल उठा । . नोंद, अव,कुमार से कोसों दूर थी। कुमार के रोम-गम ने हंसों के इस संवाद को सुना था। रात तो ज्यों-त्यों कर के काटी। दिन के निकलते ही, लता और वीट की खोज की । मिश्रण · तैयार हुआ। अंजन के आखों में जाते ही, कुमार को दिव्य ज्योति प्राप्त हो गई। थोड़ा-सा मिश्रण ओर तैयार कर लिया गया। लोकोपकार की सुन्दर भावनाओं के साथ, कुमार ने अव बस्तियों की राह ली। There is a place at the top. " जो वस्तु, जिस के योग्य होती है, अवश्व ही उसे श्राकर मिल जाती है। फिर सौदा भी संसार में बरावर हो का होता है । स्वार्थ त्याग भी, उस के लिए वैसा ही होना चाहिए । कुमार का स्वार्थ-त्याग, परोपकार के पथ में. अपने समय का, वे जोड़ था । कुमार के पथ में जो भी संकट आकर पड़े, जान पड़ते थे सचमुच में वे बड़े ही महँग परन्तु आगे चल कर उन की सस्ताई का पता संसार को लगा। चलते-चलते चम्पा नगरी में वह पहुँचा। उन दिनों, महाराज जित-शत्रु वहाँ के राजा थे। महारानी का नाम श्रीकान्ता था। कुसुमावतो उन की पुत्री थी । पर थी वह नेत्र. हीन । यही कारण था, कि अभी तक उस के साथ, कोई विवाह तक करने को राजी न था। वर की खोज में, श्राजकल-परसों करते, वर्षों बीत चुके थे । परन्तु साराप्रयत्न वेकार था। इसी घोर दुःख की चिन्ता के मारे, सारा राज-परिवार, कल प्रातःकाल होते ही होते, जीवित रूप में, जल मरने-वाला था। इसीलिए सारे शहर में, कुहराम मचा गय । जनता, [.११२ ]
SR No.010049
Book TitleJain Jagat ke Ujjwal Tare
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPyarchand Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1937
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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