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________________ ६२] जैन धर्म का प्रसार 'अथात् जैन धर्म ईसा की छठवीं सातवीं शताब्दि में प्रारम्भ हुआ, ८ वीं ९ वीं शताब्दि में इसकी अच्छी प्रसिद्धि हुई, ११ हवीं शताब्दि में इसने बहुत उन्नति की और १२ हवीं शताब्दि के पश्चात् इसका हास प्रारम्भ हो गया। जैनियों ने इस मत को अप्रमाणित सिद्ध करने का कोई लमुचित प्रयत्न और उद्योग नहीं किया। इसलिये पूरी एक शतान्दि तक पाश्चात्य व कितने ही देशी विद्वानों का यही भ्रम रहा । यद्यपि इल बीच में कोलबुक' 'जोन्ल' 'विल्सन' 'टामल', 'लेसन', 'वेवर' आदि अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने जैन ग्रन्थों का अच्छा अध्ययन किया और जैन दर्शन की खूब प्रशंसा भी की, पर उसकी उत्पत्ति के विषय में उनके विचार अपरिवर्तित ही रहे। उन्होंने जैन पुराणों में दिये हुए तीर्थंकरों के चरित्र तो पढ़े, पर उन पर उन्हें विश्वास न हुआ क्योंकि उन ग्रन्थों के काव्य-कल्पना-समुद्र में गोते लगाकर ऐतिहासिक तथ्य रूपी रल प्राप्त कर लेना एकदम सहज काम नहीं था। ऐसे समय में भाग्यवश भारतीय इतिहास की शोध का एक नया साधन हाथ आया। देश में जगह जगह जो शिलाओं व स्तम्भों व मन्दिरों आदि की दीवारों पर लेख मिलते थे उन पर इतिहास-खोजकों की दृष्टि गई। बहुत समय के निरन्तर परिश्रम से विद्वान् लोग इन लेखों की लिपि समझने में सफल हुए जिससे उनकी ऐतिहासिक छान बीन सुलभ हो गई । गत शताब्दि के मध्य भाग में सर जेम्ल प्रिंसेप' जैसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों के उद्योग ले अशोक सम्राट् की
SR No.010047
Book TitleJain Itihas ki Purva pithika aur Hamara Abhyutthana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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