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________________ जैन धर्म का प्रसार [ ६१ आज से कोई डेढ़ सौ वर्ष पूर्व जब पश्चिमी विद्वानों ने भारत का प्राचीन इतिहास तैयार करना प्रारम्भ किया तव उन्हें इस देश की एक मुख्यजन-समाज जैन जाति के विषय मैं भी अपनी सम्मति प्रगट करने की आवश्यकता पड़ी। इस सम्मति को स्थापित करने के लिये साधन ढूंढने में उनकी दृष्टि " अहिंसा परमो धर्मः " जैसे जैनियों के स्थूल सिद्धान्तों पर पड़ी जो कई अंशों में बौद्ध सिद्धान्तों से मिलते जुलते हैं । अतः वे झट इस राय पर पहुंच गये कि जैन धर्म बौद्ध धर्म की एक शाखा - मात्र है । इस मत को सामने रखकर पीछे पीछे कई विद्वानों ने जैन धर्म के विषय में खोजें कीं, तो उन्हें इसी मत की पुष्टि के प्रमाण मिले। महावीर स्वामी और महात्मा बुद्ध के जीवन काल, जीवन- घटनाओं उपदेशों व उनके माता पिता और कुटुम्बी जनों के नाम आदि मैं उन्हें ऐसी समानतायें दृष्टि पड़ीं कि उन्हें वे एक ही मनुष्य के जीवन-चरित्र के दो रूपान्तर जान पड़े, और क्योंकि उन्हें जैनियों के पक्ष के कोई भी ऐसे प्रमाण व स्मारक प्राप्त नहीं ኣ हुए जिनसे जैन धर्म की स्वतन्त्र उत्पत्ति प्रमाणित होती, अत: उनका यह मत पक्का ठहर गया कि जैन धर्म बौद्ध धर्म से निकला है । उस समय के प्रसिद्ध भारत - इतिहास लेखक एल्फिन्स्टन साहेब ने अपने इतिहास में जैन धर्म के विषय में यह लिखा " The Jainas appear to have originated in the sixth or seventh century of our era, to have become conspicuous in the eighth or ninth century, > got the highest prosperity in the eleventh and declined after the twelfth ". 1 Elphinstone History of India P. 121.
SR No.010047
Book TitleJain Itihas ki Purva pithika aur Hamara Abhyutthana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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