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________________ १० में नीर्थकर के समय हग्निंशात्पति। ५५ हुआ, उसकी धारणी राणी उसके अचल नामा पुत्र और मृगावती नाम पुत्री थी। अत्यन्त रूपवान् यौवनवती को देखके उसके बाप जिनशत्रु ने मृगावती को अपनी भार्या बनाली, नव लोकों ने राजा जितशत्रु का नाम प्रजापति रखा अर्थात् अपनी पुत्री का पति तब वेदों में ब्रामयों ने यह श्रुति बना के डाली प्रजापतिवैस्वादुहितरमभ्य ध्यायदिव नित्यन्य माहुपुरस मित्यन्येतामृश्यो भूत्वा तदसावादित्योऽभवत् ।। इसका परमार्थ ऐसा है, प्रजापति ब्रह्मा अपनी बेटी से विषय संवन को प्राप्त होता हुआ। जैन धर्मवालों के तो इस अर्थ से कुछ हानि नहीं है परंतु जिन लोकों ने ब्रह्माजी को बेदकर्चा हिरण्यगर्म के नाम से ईश्वर माना है और फिर ऐसी कथा पुराणों में लिखी है उसका फजीता तो जरूर दूसरे धर्म बाले करें होंगे क्योंकि जा पुरुष अपने हाथ से अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मारे तो फिर वेदना भी वही भागे, अपने हाथ से जो अपना मुंह काला करे उसको जरूर देखने वाले इंसे होंगे। यद्यपि मीमांसा के वार्तिककार कुमारिल भट्ट ने इस श्रुति के अर्थ का कलंक दूर करने को मनमानी कल्पना करी है तथा इस काल में स्वामी दयानन्दजी ने भी वेद श्रुतियों के कलंक दूर करने को अपने बनाये भाष्य में खूब अर्थों के जोड़ तोड़ लगाये हैं परन्तु जो भागवतादि पुराणों में कथानक लिखी है उसको क्योंकर छिपायंगेदोहा-गहली पहली क्यों नहीं समझी, मैंहदी का रंग कहां गया। वह तो प्रेम नहीं अब सुन्दर, वह पानी मुल्तान गया ।। जैनधर्म पाले तो वेद की श्रुति और ब्रह्मा (प्रजापति) का अर्थ यथार्थ ही किया है जो यथार्थ हुआ सो लिखा है। उस मृगावती के कूख से त्रिपृष्ट नाम का प्रथम वासुदेव जन्मा। अचल बलदेव माता धारणी थी दोनों जब .योवनवंत हुये तब अश्वग्रीव प्रति वासुदेव को युद्ध में मार कर पहिला नारायण हुआ।
SR No.010046
Book TitleJain Digvijay Pataka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages89
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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