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________________ श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय) । बहदारण्यक उपनिषद् के भाष्य में लिखा है, यज्ञों का कहने वाला सो यावन्स्य, उस का पुत्र याज्ञवल्क्य, ऐसा लेख ब्राह्मणों के बनाये शास्त्र में भी है इस वाक्य से भी यही प्रतीत होता है कि यज्ञों की रीति प्रायः याज्ञवल्क्य से चली है तथा ब्राह्मण विद्यारण्य सायणाचार्य ने अपने रचित भेदों के भाष्य में लिखा है,याज्ञवल्क्य ने पूर्व की बम विद्या का वमन करके सूर्य पास नवीन बम विद्या सीख के वेद प्रचलित करा, वह शुक्लयजुर्वेद कहलाया, इस वाक्य से भी यही तात्पर्य निकलता है, गावस्क्य ने अगले प्राचीन वेद त्याग दिये और नवीन रचे । जैन धर्म के ६३ शलाका पुरुष चरित्र के भाठमें पर्व के दूसरे सर्ग में लिखा है, काशपुरी में दो सन्यासिणियां रहती थीं, एक का नाम मुलसा, दूसरी का नाम सुभद्रा था, ये दोनों ही वेद वेदांग की ज्ञाता थी, इन दोनों ने बहुत वादियों को बाद में जीता, इस अवसर में एक यात्रवल्क्य परिवाजक, उन दोनों के साथ वाद करने को पाया और आपस में ऐसी प्रतिज्ञा करी कि जो हार जावे वो जीतने वाले की सेवा करे; निदान बाद में याज्ञवल्क्य सुलसा को जीत के अपनी सेवाकारिणी बनाई, सुलसा रात दिन सेवा करने लगी, दोनों योवनवंत थे, कामातुर हो दोनों विषय सेवने लग गये, सत्य तो है अग्नि के पास हविष्य जरूर पिपता है इस में शंका ही क्या, वह तो कोड़ों में एक ही नरसिंह, कोई एक ही स्थूल भद्र जैसा निकलता है, जो स्त्री समीप रहते भी शीलवंत रहे, इस लिये ही राजा भर्तृहरि ने शृंगार शतक की आदि में लिखा है, यत:-" शंभुस्वयंभुहरयो हरणेक्षणानां येनानियंत सततं गृहकर्मदासाः, वाचामगोचरचरित्रविचित्रताय तस्मै नमो भगवते कुसुमायुधाय" (मर्थ ) उस भगवंत कामदेव को नमस्कार है जिस के नानाभाधर्यकारी वचन से नहीं कहे जावें, ऐसा चरित्र है जिस में रुद्र, मां, और हरि विष्णु को हिरण जैसे नेत्रों वाली, कान्ताओं ने सदागृहके काम करनेवाले दास (अनुचर ) बना डाला । निदान याज्ञवल्क्य सुलसा । काम क्रीड़ा में मग्न, नदी तटस्थ कुटि में वास करते थे, सुलसा के पुत्र .
SR No.010046
Book TitleJain Digvijay Pataka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages89
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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