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________________ ३२ श्रीजैनदिग्विजय पताका (सत्यासत्यनिर्णय) । साधुओं का धर्म मुझे रुचता नहीं, तुम कहो तुमारे पास धर्म है या नहीं तब मरीचि ने जाना ये बहुल संसारी जीव है, मेरा ही शिष्य होने योग्य है, तब स्वार्थ बश कह उठा, उहां भी धर्म है और कुछइक मेरे समीप भी धर्म है, इस उत्सूत्र वचन के लेश से एक कोटा कोटि सागर काल का संसार में जन्न मरण की वृद्धि करी, कपिल मरीचि का शिष्य हो गया, उस बखत तक मरीचि तथा कपिल पास कोई भी पुस्तक नहीं था, निकेवल मुख जबानी मरीचि जो कुछ आचार कपिल को बताया, वो ही आचार कपिल करता रहा, अब कपिल ने आसुरी नामा शिष्य करा, और भी केई शिज्य करे, उनों को भी कपिल मरीचि की बताई क्रिया प्राचार मात्र पूर्वोक्त ही बताई, मरीचि प्रथम मरा, कितनेक लक्ष पूर्वो वर्ष पीछे कपिल मर के पांचमें ब्रह्मदेव लोक में देवता हुआ, अवधि ज्ञान से देखा, मैंने पूर्व जन्म में दानादि क्या अनुष्ठान करा, जिस पुण्य- से देवता हुआ, तब स्थूल जीवों की हिंसा टालने आदि क्रिया का फल जाना, अब अपने शिष्यों को ग्रंथ ज्ञान से.शून्य जान कर उनों के प्रेम से विचारने लगा, ये मेरे शिष्य, मेरी तरह केवल क्रिया, मेरी बताई जानते हैं और कुछ नहीं जानते, मेरा गुरु मरीचि क्रिया तो अपणे मन कल्पित खड़ी करी सो करता भी रहा, मगर उपदेश उसका ऋषभदेव कथित जैन साधुओं जैसा था, जब लिंग क्रिया भिन्न है तो कुछ तत्व ज्ञान में भी भिन्नता करनी चाहिये ऐसा विचार कर कपिल ब्रह्मदेव लोक का देवता आकाश में पंच वर्ण के मंडल में स्थित उन शिष्यों को उपदेश करने लगा, अव्यक्त से व्यक्त प्रगट होता है, इतना बचन अपने गुरु का सुन आसुरी ने ६० तंत्र शास्त्र बनाया उस में लिखा, प्रकृति से महान् होता है, और महान् से अहंकार होता है, अहंकार से १६ गण होता है, उस गण षोडश में से पंच तन्मात्रों से पंचभूत, ऐसे २४ तत्व निवेदन करा, अकर्ता विगुण , -भोक्ता ऐसा पुरुष तत्व नित्य चिद्रुप वह प्रकृति भी नहीं,विकृति भी नहीं, एसे २५ तत्व का कथन करा, पीछे इस आसुरी के संतान क्रम सें शंख नाम का आचार्य हुआ, उस के नाम से इंस-मत का नाम सांख्य प्रसिद्ध दुआ, वास्तव में सर्व परिव्राजक संन्यासियों के लिंग, प्राचारादि मत का. .
SR No.010046
Book TitleJain Digvijay Pataka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages89
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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