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________________ स्वभाव न त्यागते हुए भी परिणमन शील है, तब ही गग द्वेष भावो को छोड वीनगग हो सकती हैं। जैन लोग उन ऋग्वे. दादि वेदों को नहीं मानते, जिनको हिन्दू लोग अपना धर्मशास्त्र मानते हैं। प्रोफेसर जैकोबी ने आक्सफोर्ड में जैनधर्म को हिन्दु धर्मों से मुकाबला करते हुए कहा है-"जैनधर्म सर्वथा स्वतन्त्र है । मेरा विश्वास है कि यह किसी का अनुकरण रूप नहीं है और इसीलिए प्राचीन भारतवर्ष के तत्वज्ञान और धर्मपद्धति के अध्ययन करने वालों के लिए यह एक महत्व की वस्तु है । ( देखो पृष्ठ १४१ गुजगनी जैन दर्शन प्रकाशक अधिपति "जैन", भावनगर।) ७. जैनधर्म बौद्धधर्म की शाखा नहीं है। बौद्धधर्म पदार्थ को नित्य नहीं मानना है: आत्मा को क्षणिक मानता है, जब कि जैनधर्म श्रात्मा को द्रव्य की अपेक्षा नित्य,किंतु अवस्था की अपेक्षा अनित्य मानता है। जैनधर्ममें जो छः द्रव्य है, उनकी बौद्धोंक यहाँ मान्यता नहीं है। इसके विरुद्ध बौद्ध जैनधर्म की नकल ज़रूर है। पहले स्वय गौतम वुद्ध जैन मुनि पिहिताश्रव का शिष्य-साधु हुआ। फिर उसने 'मृतक प्राणीमें जीव नहीं होता" ऐसी शङ्का होने पर अपना भिन्न मत स्थापन किया। (देखो जैन दर्शन सार, देवनन्दि कृत) प्रोफसर जैकौवी भी कहते है : "l'he Budhist frequently refer to the . gianthas or Jains as a rival sect, but they never, so much as lupt this sect was a newly founded one On the contrari, from the war in which
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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