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________________ ( १८२ ) भगवान का पहला श्राहार गुल्मसेठ नगर के राजा धन्य ने किया, जिसका दूसरा नाम ब्रह्मदत्त भी था । भगवान ने ४ मासतक तप करते हुए विहार किया, फिर प्रभु अहिछत्र रामनगर ( जो बरेली के पास है ) के वन में आये। वहां ध्यान में बैठे थे, तब इनके वैरी उसी ज्योतिषी देव ने घोर उपसर्ग किया, किन्तु प्रभु ध्यान से न डिगे। इतने ही में सर्पों के जीव धरणेन्द्र और पद्मावती आये। उन्होंने सर्प का ही रूप धारण कर अपने फर्णो द्वारा तप में लीन भगवान की उपसर्गसे रक्षा की । इनके भय से वह ज्योतिपी देव भागगया। इसी कारण वह स्थान अहिच्छत्र प्रसिद्ध है । • उसी समय चैत वदी १४ को भगवानने केवलज्ञान प्राप्त किया और काशी, कौशल, पांचाल, मरहठा, मारू, मगध, श्रवंती, अङ्ग, बंग आदि देशों में विहार कर धर्मोपदेश दिया। स्वयंभू आदि १० गणधरोंको लेकर कुल १६००० मुनि, ३६००० श्रार्यिकाएँ, एक लाख श्रावक व ३ लाख श्राविकाएँ शिष्य हुए। कुछ कम ७० वर्ष विहार करके श्रीसम्मेद शिखर पर्वत से सावन सुदी ७ को भगवान मोक्ष पधारे। # #श्रीपार्श्वनाथजीके उपसर्गके सम्बन्धमें कथन है किवृहत्फणा मण्डल मण्डपेन यं स्फुरन्तडिल्पिगरुचीपसर्गिणाम् । जुगूहनागो धरणोधराधरं, विराग संध्या तडि दम्बुदोयथा ॥ १३२ ॥ ( स्वयम्भू स्तोत्र ) भावार्थ - धरणेन्द्र ने उपसर्ग में प्राप्त भगवान के ऊपर अपने फणको मण्डप इसी तरह कर लिया जिस तरह पर्वत पर बिजली सहित मेघ छा जाते हैं ।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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