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________________ ह-ज्ञान-चेतना, कर्म-चेतना, कर्मफल-चेतना। चैत्यालय-जिनविव को चेत्य कहते है। चेत्य के आश्रयभूत स्थान को जिनालय या चैत्यालय कहा जाता है। ये दो प्रकार के होते हे-कृत्रिम चैत्यालय और अकृत्रिम-चेत्यालय। मनुष्य लोक मे मनुष्यो के द्वारा निर्मित जिनमंदिर कृत्रिम-चैत्यालय कहलाते हे । शाश्वत स्वप्रतिष्ठित और सदेव प्रकाशित रहने वाले जिन-मंदिर अकृत्रिम-चेत्यालय कहलाते है। चैत्यवृक्ष-जिस वृक्ष के आश्रित अर्हन्त प्रतिमाए होती हे उसे चेत्यवृक्ष कहते है। एक-एक चैत्यवृक्ष के आश्रित आठ प्रातिहार्य से युक्त चार-चार मणिमय अर्हन्त प्रतिमाए होती है। समवसरण मे अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र-ऐसे चार प्रकार के चेत्यवृक्ष होते है। इनकी ऊचाई अपने-अपने तीर्थकर से वारह गुनी होती है। चौर्यानन्द-तीव्र क्रोध व लोभ क वशीभूत होकर निरन्तर चोरी का विचार करना, चोरी का उपदेश देना, चोरी करके हर्षित होना, चारी के माल का क्रय-विक्रय आदि करना चौर्यानन्द नाम का रोद्र-ध्यान है। च्यावित-अकाल मरण के द्वारा जीव का जो शरीर असमय म ही छूट जाता है वह च्यावित-शरीर है। च्युत-आयु पूर्ण हो जाने पर पके हुए फल क ममान जीव का जा शरीर म्वत छूट जाता है उसे च्युत-शरीर कहते है। १h / जनदशन पारिभापिक काश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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