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________________ गुरूपास्ति-आचार्य आदि वीतरागी गुरुओ की पूजा करना तथा उनकी सेवा मे सदा तत्पर रहना गुरूपास्ति है। गृहीत-मिथ्यात्व-दूसरे के द्वारा मिथ्या उपदेश सुनकर जीवादि पदार्थो के विषय मे जो अश्रद्धान रूप भाव उत्पन्न होता है उसे गृहीत-मिथ्यात्व कहते है। गोचरी-गृहस्वामी के द्वारा लायी गई घास को खाते समय जैसे गाय घास को ही देखती है लाने वाले के रूप रग या स्थान की सजावट आदि को नहीं देखती उसी प्रकार साधु भी आहार देने वाले के रूप-रग, गरीवी-अमीरी आदि को न देखते हुए आहार ग्रहण कर लेते है इसलिए साधु की आहार चर्या गोचरी-वृत्ति कहलाती है। गोत्र कर्म-1 जिस कर्म के उदय से जीव उच्च और नीच कहा जाता हे या उच्च और नीच कुल मे उत्पन्न होता है वह गोत्र-कर्म हे। इसके दो भेद है-उच्च-गोत्र और नीच-गोत्र। ग्रामदाह-जिस ग्राम मे साधु आहार के लिए गए है यदि वहा अग्नि आदि का प्रकोप हो जाए तो यह ग्रामदाह नाम का अतराय है। ग्रैवेयक-वैमानिक देवो के जो विमान पुरुष की ग्रीवा के समान हे या जो लोक के ग्रीवा मे स्थित हे वे ग्रेवयक विमान कहलाते है। ग्लान-जिनका शरीर रोग आदि से पीडित हो उस साधु को ग्लान कहते है। 90 / जनदशन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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