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________________ क्षय-क्षय का अर्थ हे नष्ट होना। जैसे फिटकरी आदि मिलाने पर स्वच्छ हुए जल को दूसरे साफ बर्तन में बदल देने पर कीचड का अत्यन्त अभाव हो जाता है ऐसे ही कर्मों का आत्मा से सर्वथा दूर हो जाना क्षय है। क्षयोपशम-जेसे कोदो को धोने से कुछ कोदो की मादकता नष्ट हो जाती है कुछ बनी रहती है इसी तरह परिणामो की निर्मलता से कर्मो के एकदेश का क्षय और एकदेश का उपशम होना क्षयोपशम कहलाता है। यद्यपि इस अवस्था मे कुछ कर्मो का उदय भी विद्यमान रहता है परन्तु उसकी शक्ति अत्यत क्षीण हो जाने के कारण वह जीव के गुणो को घातने मे समर्थ नहीं होता। इसीलिए कर्मो का उदय होते हुए भी जो जीव के गुण का अश उपलब्ध रहता है उसे क्षयोपशम कहते है। क्षयोपशम-लब्धि-ज्ञानावरणीय कर्म के एकदेश क्षय होने को क्षयोपशम कहते है। क्षयोपशम होने पर आत्मा मे जो ज्ञान उत्पन्न होता हे उसे क्षयोपशम-लब्धि कहते हैं। क्षायिक-उपभोग-उपभोगान्तराय कर्म के नष्ट हो जाने से आत्मा के अनन्त उपभोग होता है। इसे क्षायिक-उपभोग भी कहते हैं। इसके फलस्वरूप अर्हन्त अवस्था मे सिहासन, छत्र, चमर आदि रूप विभूतिया प्राप्त होती है। क्षायिक-भोग-भोगान्तराय कर्म के नष्ट हो जाने से आत्मा के अनन्त-भोग या क्षायिक-भोग का प्रादुर्भाव होता है। जिसके फलस्वरूप अर्हन्त अवस्था मे पुष्प-वृष्टि आदि अतिशय होते है। जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 79 '
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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