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________________ उपवास - अन्न-जल आदि सभी प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास हे । या विषय कषाय को छोडकर आत्मा मे लीन रहना उपवास है । उपवेशन - आहार करते समय शारीरिक शिथिलता के कारण साधु को यदि अचानक बैठना टिकना या सहारा लेना आवश्यक हो तो यह उपवेशन नाम का अन्तराय है । उपशम-आत्मा मे कर्म की निज शक्ति का कारणवश प्रगट न होना उपशम कहलाता है। जैसे- जल मे फिटकरी डालने पर मैल नीचे बैठ जाता है और जल निर्मल हो जाता है इसी प्रकार कर्म के उपशम से अन्तर्मुहूर्त के लिए जीव के परिणाम अत्यंत निर्मल हो जाते है यह उपशम की प्रक्रिया सिर्फ मोहनीय कर्म मे होती है । उपशम-श्रेणी - चारित्र मोहनीय कर्म का उपशम करता हुआ साधक जिस श्रेणी अर्थात् अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय और उपशान्त कषाय नामक आठवे, नौवे, दसवे और ग्यारहवे इन चार गुणस्थानो रूप सीढ़ी पर चढता है उसे उपशम-श्रेणी कहते है । उपशम-सम्यक्त्व-दर्शन मोहनीय कर्म के उपशम से आत्मा मे जो निर्मल श्रद्धान उत्पन्न होता है उसे उपशम सम्यक्त्व कहते है । यह दो प्रकार का हे - प्रथमोपशम-सम्यक्त्व और द्वितीयोपशम-सम्यक्त्व | उपशान्त - कषाय- जिसने समस्त मोहनीय कर्म का उपशम कर लिया हे ऐसे ग्यारहवे गुणस्थानवर्ती जीव को उपशान्तकषाय कहते है । उपसर्ग -1 साधुजनो पर आने वाली विपत्ति या सकट को उपसर्ग जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 55
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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