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________________ अभक्ष्य है अर्थात् खाने योग्य नहीं है । उदय-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव के अनुरूप कर्मों के फल का प्राप्त होना उदय कहलाता है । उदरक्रिमिनिर्गम-आहार करते समय साधु के उदर से किसी रोगवश कृमि आदि निकल आने पर उदरक्रिमिनिर्गम नाम का अन्तराय होता है। उदराग्नि- प्रशमन - जैसे अपने घर मे लगी हुई अग्नि की गृहस्वामी किसी भी प्रकार से बुझाने का प्रयत्न करता है उसी प्रकार साधु भी सरस या नीरस ऐसा भेद किए बिना श्रावक के द्वारा दिए गए प्रासुक आहार से उदराग्नि को शान्त करता है अत साधु की यह आहार चर्या उदराग्नि प्रशमन कहलाती है। उदीरणा-अपक्व अर्थात् नहीं पके हुए कर्मों को पकाना उदीरणा हे । दीर्घ काल वाद उदय मे आने योग्य कर्म को अपकर्षण करके उदय मे लाकर उसका अनुभव कर लेना यह उदीरणा है। उद्दिष्ट आहार- दाता ओर पात्र की अपेक्षा उद्दिष्ट आहार दो प्रकार का है । दाता यदि अध कर्म सवधी सोलह उद्गम दोषो से युक्त आहार साधु को देता है तो यह दाता सवधी उद्दिष्ट आहार है। यदि पात्र अर्थात् साधु अपने लिए स्वय आहार बनाए, बनवाए या आहार के उत्पादन सबधी किसी प्रकार का विकल्प करे तो यह पात्र सवधी उद्दिष्ट आहार कहलाता है। उद्दिष्टाहार-त्याग-प्रतिमा- दसवीं अनुमति त्याग प्रतिमा के उपरान्त जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 51
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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