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________________ छह आयतन है। आयु-कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव मनुष्य आदि भव धारण करता है उसे आयु-कर्म कहते है। नरकायु, तिर्यचायु, देवायु और मनुष्यायु-ये चार भेद आयुकर्म के है। आरम्भ-1 जीवो को पीडा पहुचाने वाली प्रवृत्ति करना आरभ है। 2 कार्य करने लगना सो आरभ है। आरम्भ-त्याग-प्रतिमा-सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण करने के उपरात जीवन पर्यन्त नौकरी, खेती, व्यापारादि आरभ नहीं करने की प्रतिज्ञा लेना, यह श्रावक की आरम्भ-त्याग नामक आठवीं प्रतिमा है। आरम्भी-हिंसा-गृहस्थी सवधी कार्य करने मे जो हिसा होती है उसे आरम्भी-हिसा कहते है। आराधना-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारो का यथायोग्य रीति से उद्योतन करना, इन्हे दृढतापूर्वक धारण करना, इनके मद पड़ जाने पर पुन पुन जागृत करना और इनका जीवन भर पालन करना आराधना कहलाती है। आर्जव-धर्म-1 कुटिल भाव को छोडकर सरल हृदय से आचरण करना आर्जव-धर्म कहलाता है। 2 मन, वचन और काय की ऋजुता अर्थात् सरलता का नाम आर्जव हे। आर्तध्यान-इष्ट वियोग आदि के निमित्त से निरतर पीडा या दुख रूप परिणाम होना आर्तध्यान है। यह चार प्रकार का है-इष्टवियोगज, अनिष्ट सयोगज, वेदना ओर निदान। जेनदर्शन पारिभाषिक कोश / 41
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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