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________________ आदि विकलत्रय जीवो की उत्पत्ति नहीं होती है। मधुर गध वाली मिट्टी ओर अच्छे प्रकार की घास होती है। निर्मल जल से युक्त सरोवर ओर नदिया होती है। असज्ञी जीव और परस्पर वेर रखने वाले हिसक जीव नहीं होते । दुराचार ओर व्यसन नहीं होते। इस काल में उत्पन्न होने वाले मनुष्यो की ऊचाई तीन कोस और आयु तीन पल्य होती है। इनके शरीर मलमूत्र और पसीने से रहित तथा अत्यत सुदर, सुदृढ ओर सुडोल होते है। इस काल में उत्पन्न होने वाले वालक-बालिका के युगल शय्या पर सोते हुए तीन दिन व्यतीत करते हे फिर वेठना, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कलागुणो की प्राप्ति, तारुण्य ओर सम्यग्दर्शन प्राप्ति की योग्यता-इन प्रत्येक अवस्थाओ में क्रमश तीन-तीन दिन व्यतीत करके इक्कीस टिन में पूर्ण योवन और कला से सपन्न हो जाते है। इस काल में परिवार, ग्राम, नगर आदि नहीं होते । केवल दस पकार के कल्पवृक्ष होते हे जो प्रत्येक युगल को अपने-अपने मन की कल्पित वस्तुए दिया करते है। कल्पवृक्षों से प्राप्त वस्तुओ को ग्रहण करके ओर विक्रिया के द्वारा भी अनेक प्रकार के भोगों को भोगते हुए यहा के जीव चक्रवती के भोगों की अपेक्षा अनन्तगुणा विषय-सुख पाते है। मनुष्य तीन दिन के अतराल से चोथे दिन चेर के वरावर अल्पाहार ग्रहण करते है। मनुष्य की नो माह को आयु शेष रहने पर स्त्रियों को गर्भ रहता है और युगल वालक-वालिका का जन्म होता है। सतान का जन्म होत ही माता-पिता का मरण हो जाता है। मरण के समय पुरुष को ठीक ओर स्त्री को जभाई जाती है और शरीर मेघ क ममान विलीन हो जाता है । इस काल में गाय, मिह, हाधी आदि उत्तम निर्यचों के यान परन्पर वर माव के बिना मधर ग्राम का खास मुखपूर्वक जीवन जनदर्शन पारिभाषिक श 259
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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