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________________ और अस्तित्व का बोध कराना सभव होता है। यही इस नय का प्रयोजन है। यह दो प्रकार का है-अनुपचरित सद्भूत और उपचरित-सद्भूत। सन्निधिकरण-सम्मुख या निकट होना सन्निधिकरण है। पूजा करते समय पूज्य पुरुष को अपने हृदय मेबिठाना सन्निधिकरण कहलाता है। सप्तभगी-प्रश्न के अनुसार एक ही वस्तु मे जो बिना किसी विरोध के सत्, असत् आदि धर्मों का कथन किया जाता है उसे सप्तभगी कहते है। स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्ति-नास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति-अवक्तव्य, स्यात् नास्ति-अवक्तव्य और स्यात् अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य-इस प्रकार वस्तु को जानने के लिए सात प्रकार के प्रश्न उठते है सो उनके उत्तर भी सात है। यही सप्तभगी है। जैसे 'कथचित् घडा है' अर्थात् किसी अपेक्षा घडा है, इस प्रकार घडे के अस्तित्व सम्बन्धी सात प्रश्न और सात ही उत्तर सभव हैं। मुख्य और गौण की अपेक्षा से सभी को जानना सार्थक है। सप्रतिष्ठित-देखिए प्रत्येक वनस्पति । समचतुरस्र-सस्थान-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर सुडौल होता है उसे समचतुरस्र-शरीर-सस्थान-नामकर्म कहते है। समता-शत्रु-मित्र मे, सुख-दुख मे, लाभ-अलाभ ओर जय-पराजय में, हर्ष-विषाद नही करना या साम्य भाव रखना समता है। समदत्ति-जो आचार-विचार आदि में अपने समान अन्य उत्तम गृहस्थ है उसे विनयपूर्वक अपनी कन्या और धन-धान्य आटि देना समदत्ति है। जेनदर्शन पारिभाषिक कोश / 239
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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