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________________ राजसिक-दान-जो दान कवल अपने यश और ख्याति के लिए किया गया हो, जो थोडे समय के लिए सुदर ओर चकित करने वाला हो तथा दूसरे के द्वारा दिलाया गया हो वह राजसिक-दान है। रात्रि-भुक्ति-त्याग-प्रतिमा-सचित्त-त्याग नामक पाचवी प्रतिमा धारण करने के उपरात जीवन पर्यन्त के लिए मन, वचन, काय से रात्रि मे अन्न, जल आदि चारो प्रकार के आहार का त्याग कर देना यह श्रावक की रात्रि-भुक्ति-त्याग नामक छठवी प्रतिमा हे। रुद्र-जिनदीक्षा लेने के उपरात कर्म के तीव्र उदय से विषय-वासनावश सयम से भ्रष्ट होकर रोद्र-कार्य करने वाले रुद्र कहलाते है। ये दसवे विद्यानुप्रवाद नामक पूर्व का अध्ययन करते समय विषयासक्त होकर तप से भ्रष्ट हो जाते हे और नरकगामी होते हे । रुद्र ग्यारह हुए है। रुधिर-अन्तराय-आहार करते समय यदि साधु को अपने शरीर से अथवा दूसर के शरीर से रक्त वहता हुआ दिख जाए तो यह रुधिर नाम का अन्तराय है। रूपगता-जिसमे सिह, घोडा, हरिण आदि की आकृति धारण करने के कारणभूत मत्र, तत्र एव तपश्चरण का तथा चित्र, काष्ठ, लेप्य और लयनकर्म के लक्षण का वर्णन किया गया हे उसे रूपगता-चूलिका कहते है। रूप-सत्य-पदार्थ के अभाव में मात्र रूप की अपेक्षा उसका कथन करना जैस-चित्र मे वन पुरुष को पुरुष कहना रूप-सत्य है। रूपस्थ-ध्यान-समवसरण के मध्य में स्थित अनन्त चतुष्टय स 206 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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