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________________ पापानुवधी- पुण्य-पुण्य के उदय से प्राप्त वुद्धि, कोशल, निरोग शरीर आदि क्षमताओ को पापार्जन मे लगा देना यह पापानुवधी-पुण्य का मांग है। पापोपदेश-विना प्रयोजन के दूसरो को हिसाजन्य खेती, व्यापार आदि पाप कार्य करने का उपदेश देना पापोपदेश नाम का अनर्थदड है। पारिग्राहिकी - क्रिया-परिग्रह के अर्जन और सरक्षण के लिए जो क्रिया की जाती है वह पारिग्राहिकी-क्रिया हे । पारिणामिक-भाव-परिणाम अर्थात् स्वभाव से जो होते हे वे पारिणामिक भाव है। आशय यह है कि कर्म के उदय, क्षय, उपशम और क्षयोपशम को अपेक्षा न रखते हुए जो जीव के स्वभावभूत भाव हव पारिणामिक-भाव कहलाते है। ये तीन प्रकार के हे- जीवत्व, भव्यत्व आर अभव्यत्व । पारितापिकी क्रिया- जो दुख के बढाने मे कारण हे वह पारितापिकी-क्रिया है । पार्थिवी धारणा - पिडस्थ ध्यान करने वाला योगी सवपथम अत्यन्त शात और सफेद क्षीरसमुद्र का ध्यान करें फिर उसक मध्य में सुदर पण कमल का चिन्तवन करे तत्पश्चात् उस कमल के मन्य स्थित कामेश्वेत रंग के सिहासन का चिन्तन करें। अंत में उस मिहामन पर मन कर्मों का क्षय करने में समर्थ निज आत्मा वा चितवन र परम पानवी धारणा है । जेन्द्र पारिभाषिक काश 155
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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