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________________ लोक-व्यवहार है वह सव नैगमनय का विषय है। नेष्ठिक-श्रावक-जो श्रद्धापूर्वक व्रत, सामायिक आदि ग्यारह प्रतिमाओं में से एक-दो या सभी प्रतिमाए ग्रहण करता हे वह नेष्ठिक-श्रावक कहलाता है। नो-कर्म-कर्म के उदय से प्राप्त होने वाला औदारिक आदि शरीर जो जीव के सुख-दुख मे निमित्त वनता हे वह नो-कर्म कहलाता है। नो-कर्माहार-शरीर की स्थिति में निमित्तभूत और पुण्य रूप जो असाधारण अनन्त परमाणुप्रतिक्षण अर्हन्त भगवान के शरीर से सबंध को प्राप्त होते है उसे नो-कर्माहार कहते हैं। अर्हन्त भगवान के एकमात्र नो-कर्माहार ही होता है। नो-कपाय-ईपत् या अल्प कपाय का नो-कषाय कहते है। जिस कर्म के उदय से जीव हास्य आदि का वेदन करता है वह नो-कषाय-वेदनीय कर्म है। इसके नौ भेद हे-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद । न्यग्रोधपरिमडल-सस्थान-बड़ के पेड को न्यग्रोध कहते है। जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर बड के पेड के समान नाभि के ऊपर मोटा ओर नीचे पतला होता है उसे न्यग्रोधपरिमडल-सस्थान कहते है। 146 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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