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________________ सी अम्सी हाथ थी। शरीर स्वण के समान आमा वाला था। पाच लाख वप तक राज्य करने के उपरात उल्कापात देखकर उन्हें वैराग्य हा गया । अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य टंकर इन्होंने जिनदीक्षा ले ली। एक वर्ष तक तपस्या करके कंवलज्ञान प्राप्त किया। इनके सघ मे अरिष्टसेन आदि तंतालीस गणधर, चौसठ हजार मुनि, वासठ हजार आर्यिकाए, दो लाख श्रावक और चार लाख थाविकाए थीं। इन्होंने सम्मेद शिखर से मोक्ष प्राप्त किया। धर्मानुप्रेक्षा-जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गए वीतराग धर्म के विना यह जीव अनादि काल से दुख का अनुभव करते हुए ससार मे भ्रमण कर रहा है। धर्म को धारण करने वाले जीव को उत्तम सुख की प्राप्ति होना निश्चित है। इस प्रकार धर्म-भावना का वार-वार चिन्तन करना धर्मानुप्रेक्षा है। धर्मानुराग-धर्म मे स्थिर रहना ओर विपत्ति आने पर भी धर्म से विमुख नहीं होना धर्मानुराग है। धर्मावर्णवाद-'जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया अहिसा धर्म गुणकारी नहीं है, इसका पालन करने वाले जीव असुर होते है'-इस प्रकार धर्म की निन्दा करना धर्म-अवर्णवाद है। धर्मोपदेश-जिससे जीवो को उत्तम सुख की प्राप्ति हो ऐसे वीतराग धर्म का उपदेश देना धर्मोपदेश नाम का स्वाध्याय है। धात्री-दोष-जा वालक का पालन-पोषण करे वह धाय कहलाती है। यदि साधु धाय सवधी कार्यों का उपदेश देकर आहार प्राप्त करता हे तो यह धात्री दोष है। 180 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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