SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहता है चूंकि आयुकर्म सदा नहीं बधता अत ज्ञानावरणीय आदि शेष सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्कधो को वह प्रति समय ग्रहण करता हे और उन्हे भोगकर छोड़ देता है। इस प्रक्रिया में वह अनन्त बार अगृहीत परमाणुओं को ग्रहण करके छोड देता है, मिश्र परमाणुओ को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ता है और अनन्त वार गृहीत परमाणुओ को ग्रहण करके छोड़ता है । तत्पश्चात् जब उस जीव के द्वारा सर्वप्रथम ग्रहण किए गए वे ही परमाणु उसी प्रकार से पुन कर्म रूप में परिणत होते हैं तब यह सब मिलकर एक कर्म द्रव्य-परिवर्तन कहलाता है । तात्पर्य यह है कि पुद्गल परिवर्तन रूप ससार मे अनेक बार भ्रमण करता हुआ जीव सभी पुद्गलो को क्रम से भोगकर छोड़ता रहता है। द्रव्य - पूजा-पच परमेष्ठी के सम्मुख भक्ति भाव से गन्ध, पुष्प, धूप व अक्षत आदि श्रेष्ठ अष्ट द्रव्य समर्पित करना द्रव्य-पूजा हे । द्रव्य - लिंग - देखिए लिग । द्रव्य श्रुत-भावश्रुत के आश्रय से उत्पन्न होने वाले वचनात्मक श्रुत को द्रव्यश्रुत कहा जाता हे या अक्षर रूप जिनवाणी को द्रव्य-श्रुत कहते है । द्रव्य - सामायिक - चेतन-अचेतन द्रव्यो मे इष्ट-अनिष्ट रूप विकल्प नहीं करना द्रव्य - सामायिक है । द्रव्य-स्तव - शुभ लक्षणों से युक्त चोवीस तीर्थकरो के शरीर की छवि का कीर्तन करना द्रव्य-स्तव कहलाता है । 126 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy