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________________ है वे जीवविपाको कर्म कहलाते है। इन कर्मों के उदय से जीव के ज्ञान-दर्शन आदि गुण ढक जाते है। जीव-समास-जीव और उनके भेद-प्रभेदो का जिसमें सग्रह किया जाए उसे जीव-समास कहते है। चौदह जीव-समास प्रसिद्ध है-एकंन्द्रिय वादर व सूक्ष्म (पर्याप्त-अपर्याप्त), द्वीन्द्रिय (पर्याप्त-अपर्याप्त), त्रीन्द्रिय (पर्याप्त-अपर्याप्त), चतुरिन्द्रिय (पर्याप्त-अपर्याप्त) एव पचेन्द्रिय-सज्ञी व असज्ञी (पर्याप्त-अपर्याप्त)। जीव-सपात-आहार करते समय यदि साधु के दोनो पैरो के बीच में कोई जीव गिर जाए तो यह जीव-सपात नाम का अन्तराय है। जीवानी-जल छानने के पश्चात् शेष बचे जल को सावधानी-पूर्वक उसी जलाशय मे डालना यह जीवानी कहलाती है। जुगुप्सा-घृणा या ग्लानि होना जुगुप्सा है । जिस कर्म के उदय से अपने दोषो को ढकने और दूसरे के दोषों को प्रकट करने का भाव उत्पन्न होता है या दूसरे के प्रति घृणा होती हे वह जुगुप्सा नामक नो-कषाय है। जुहार-परस्पर नमस्कार करने के लिए जुहार शब्द का प्रयोग किया जाता है। जुहार शब्द का अर्थ है युग के प्रारभ में सर्व सकटो को हरने वाले और सव जीवो की रक्षा करने वाले भगवान ऋषभदेव को प्रणाम हो। जैन-जिन्होने काम, क्रोध, मोह आदि विकारों को जीत लिया है वे जिन या जिनेन्द्र कहलाते है। जिनेन्द्र भगवान के उपासक को जैन जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 103
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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