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________________ हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन "नहीं नहीं, यह बात कभी नहीं हो सकती, आपके विचारोंको हमारे हृदयमें बिल्कुल अवकाश नहीं मिल सकता। वे किसी हिंस्र जानवरके पंजे में भा जायँ, यह बात सर्वथा असम्भव है । क्योंकि मुझे उनकी वीरता और कला-कुशलताका भली-भाँति परिचय है ।" I इस प्रकार दो परिच्छेद समाप्त होनेतक पाठकोकी जिज्ञासा वृत्ति ज्योंकी त्यो बनी रहती है । रत्नेन्दुका नाम पा जिज्ञासा कुछ शान्त होना चाहती है कि एक करुणक्रन्दन चौका देता है । पाठक या श्रोताकी श्रोत्रेन्द्रियके साथ समस्त इन्द्रियाँ उधर दौड़ जाती है और अपनेको उस रहस्यमे खो पद्मनिका नाम पा आनन्दविभोर हो जाती है । रत्नेन्दु इस भीपण और हृदय-द्रावक स्वरमे अपना नाम सुन किकर्त्तव्यविमूढ हो जाता है, और थोड़ी ही देर मे स्वस्थ हो कष्टनिवारणार्थ उधरको ही चला जाता है । रत्नेदु अपनी तल्वारले कपालीके खूनी पजेसे बालिकाको मुक्त करता है । पद्मनि एक सघन वृक्षकी शीतल छायामे पहुँचकर अपना दुःख निवेदन करती है । नारीकी श्रद्धा, निष्कपटता, त्याग एव सतीत्वका परिचय पद्मनिकै वचनोसे सहजमे मिल जाता है । पद्मलोचन सती है, महासती है, उसमे लज्जा है, स्नेह है, ममता है, मृदुता है और है कठोरता अधर्म के प्रति, अविद्याके फन्देमे पड़नेपर भी सचेष्ट रहती है। वह अग्निकी ज्वलन्त लपटों से प्यार करनेको तत्पर है, किन्तु अपने शीलको अक्षुण्ण बनाये रखना चाहती है । रत्नेन्दुके लिए वह आत्मसमर्पण पहले ही कर चुकी थी, अतः श्रद्धाविभोर हो वह कहती है- "ज्योतिपीने कहा, कुछ ही समय बाद रत्नेन्दु चन्द्रपुरकी गीका मालिक होगा । वह रूप लावण्य से आपकी कन्या योग्य वही घर है। उसी समयसे मैं उसे अपना सर्वस्व समझ बैठी और इस असाध्य संकटमें उनका नाम रमरण किया। मैंने प्रतिज्ञा की है कि रत्नेन्दुके साथ विवाह करूंगी, अन्यथा आजन्म ब्रह्मचारिणी रहूँगी।" इस मिलन के पश्चात् पुनः वियोग आरम्भ होता है । कपालीका पुत्र ६२
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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