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________________ ૨૮ हिन्दी - जैन साहित्य- परिशीलन है। वस्तुतः पूज्य वर्गीकी जीती-जागती यशोगाथासे आज कौन अपरिचित होगा ? इस ३३ हाथके मिट्टीके पुतलेका व्यक्तित्व आज गजब ढा रहा है। समस्त मानवीय गुणोंसे विभूषित इस महामानवमें मूक परोपकारकी अभिव्यंजना, साधना और त्यागकी अभिव्यक्ति एवं बहुमुखी विद्वत्ताका सयोग जिस प्रकार हो पाया है, शायद ही अन्यत्र मिले। इतनी सरल प्रकृति, गम्भीर मुद्रा, ठोस ज्ञान, अटल श्रद्धानादि गुणोंके द्वारा लोग सहन ही इनके भक्त बन जाते हैं। जो भी इनके सम्पर्क में आया वह अन्तरंगमें मायाशून्यता, सत्यनिष्ठा, प्रकाण्ड पाण्डित्य, विनाके साथ चरित्र, प्रभावक वाणी, परिणामोंमें अनुपम शान्ति एवं आत्मिक और शारीरिक विशुद्धता आदि गुणराश्चिसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। इसके अतिरिक्त अज्ञानतिमिरान्ध जैनसमानका ज्ञानलोचन उन्मीलित करके लोकोत्तर उपकार करनेका श्रेय यदि किसीको है तो श्रद्धेय वणजी को । पृज्य वर्णोजीका जीवन जैनसमानके लिए सचमुच में एक सूर्य है । वे मुमुक्षु हैं, साधक हैं और है स्वयंवृद्ध। उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखकर जैनसमानका ही नहीं, अपितु मानवसमाजका बड़ा उपकारं किया है । अध्ययनकी लालमा पूज्य वर्गीजीमें कितनी थी, यह उनकी आत्मकथासे स्पष्ट है । उन्होंने जयपुर, मथुरा, खुरना, काशी, चकौती ( दरभंगा जिला ) और नवद्वीप आदि अनेक स्थानोंकी न्यायचा पढ़नेके लिए खाक छानी । जहाँ भी न्यायशान्त्रके विद्वानका नाम नुना, आप वहीं पहुँचे तथा श्रद्धा और मक्तिके साथ उसे अपना गुरु बनाया। आत्मकथाके लेखक पूज्य वर्णाजीने अपने जीवन की समस्त घटनाओंका यथार्थ रूपमें अकन किया है। काशीके त्याद्वाद महाविद्यालय में नव अध्ययन करते थे, उस समयका एक उदाहरण देखिये उन दिनों विद्यालय के अधिष्ठाता ( प्रिंसिपल ) थे बाबा भागीरथनी वर्णी । न्यायको उच्चकक्षा के विद्यार्थी होनेके कारण आप उनके मुँहलगे
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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