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________________ १२० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन भगवान् महावीरके माता-पिनाकी मृत्यु, तपस्याकी साधना आदि अवसरोपर स्वाभाविक अन्तर्द्वन्द्वकी योजना कर सकता था। __पात्रोका वैयक्तिक विकास भी इसमें नही दिखलाया गया है। नन्दिवर्द्धन, त्रिशला, प्रियदर्शनाका व्यक्तित्व इस नाटकमे लुप्तप्राय है। स्वयं सिद्धार्थ वर्द्धमान समक्ष विवाहका प्रस्ताव आदेशके रूपमें नहीं, बल्कि प्रार्थनाके रूपमे उपस्थित करते हैं। यह नितान्त अस्वाभाविक है। हॉ पिता प्रेमसे समझा सकते थे या मधुर वचनो-द्वारा पुत्रको फुसलाकर विवाह करा सकते थे। नाटकमे अवस्थाएँ और अर्थ-प्रकृतियों भी स्पष्ट नहीं आ सकी है। हॉ, खीच-तानकर पाँचो अवस्थाओकी स्थिति दिखलाई जा सकती है। ___ रस परिपाककी दृष्टि से यह रचना सफल है । न यह सुखान्त है और न दुःखान्त ही। महावीरके निर्वाण लाभके समय शान्तरसका सागर उमड़ने लगता है । अहिंसा मानवके अन्तस्का प्रक्षालन कर उसे भगवान् बना देती है। यही इस नाटकका सन्देश है। वर्तमानको समस्त बुराइयाँ इस अहिसाके पालन करनेसे ही दूर की जा सकती हैं। निबन्ध-साहित्य आधुनिक युग गद्यका माना जाता है। आज कहानी, उपन्यास और नाटकोके साथ निबन्ध-साहित्यका भी महत्वपूर्ण स्थान है। जैन हिन्दी गद्य साहित्यका भाण्डार निबन्धोसे जितना भरा गया है, उतना अन्य अगोसे नही । प्रायः सभी जैन लेखक हिन्दी भापाकै माध्यम-द्वारा तत्त्वज्ञान, इतिहास और विज्ञानकी ऊँची-से-ऊँची बातोको प्रकट कर रहे हैं। यद्यपि मौलिक प्रतिभा सम्पन्न निबन्धकारोंकी सख्या अत्यल्प है, तो भी अपने अभीप्सित विषयके निरूपणका प्रयास अनेक जैन लेखकोंने किया है। निबन्ध साहित्य इतने विपुल परिमाणमें उपलब्ध
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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