SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नाटक ११९ २ - नाटककी भाषा सरल, सुबोध और भावानुकूल हो । ३ - हृदय परिवर्तन समयानुकूल और व्यवस्थित हो । ४ - कथावस्तु जटिल न हो । ५ - गीतोका वाहुल्य न हो तथा नृत्य भी न रहे तो अच्छा है। ६ --- पात्रोका चरित्र मानवीय हो । ७--कथोपकथन विस्तृत न हो, स्वगत भाषण न हो । इन गुणोकी दृष्टिसे वर्द्धमान नाटक में अभिनय सम्बन्धी बहुत कम त्रुटियाँ हैं । यह अधिक से अधिक दो घण्टेमे समाप्त किया जा सकता है । हृदय - परिवर्तन रंगमंच के अनुसार हुए है। कथावस्तु सरल है। हॉ, संगीतका न रहना कुछ खटकता है, नाटकमे इसका रहना आवश्यक-सा है । arrain कथा और चारित्रको स्पष्ट करनेके लिए कथोपकथनका आश्रय लिया जाता है । इस नाटकके कथोपकथन नाटकीय प्रभाव उत्पन्न करने की क्षमता रखते हैं । श्राव्य- अश्राव्य और नियत श्राव्य तीनों प्रकारके कथोपकथनों से ही इसमें श्राव्य कथोपकथनको ही प्रधानता दी गई है। त्रिशला और सुचेताका निम्न कथोपकथन कथाके प्रवाहको कितना सरस और तीव्र बना रहा है, यह दर्शनीय है त्रिशला - सुचेता ! मै तालाबमे सबसे आगे तैरते हुए दोनो हंसोको देखकर अनुभव कर रही हूँ जैसे मेरे दोनो पुत्र नन्दिवर्द्धन और वर्द्धमान क्रीडा कर रहे है । दोनोमे जो सबसे आगे तैर रहा है वह सुचेता -- वह कुमार नन्दिवर्धन है महारानी ! त्रिशला - नहीं सुचेता, वह वर्द्धमान है । नन्दिवर्द्धनमे इतनी तीव्रता कहाँ ? इतनी क्षिप्रता कहाँ १ देख, देख, किस फुर्तीसे कमलकी परिक्रमा कर रहा है शरारती कहीँका । यह सब होते हुए भी पात्रोंके अन्तर्द्वन्द्व द्वारा कथोपकथनमें जो एक प्रकारका प्रवाह आ जाता है, वह इसमे नहीं है । लेखक चाहता तो
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy