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________________ १०२ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन भनन विन यौँ ही जनम गमायौ। पानी पै या पाल न बांधी, फिर पीछे पछतायो । भजना रामा-मोह भये दिन खोचत, आशापाण बंधायो। जप-तप संजम दान न दीनौं, मानुप जनम हरायो । भजन । देह सीस जय कॉपन लागी, दसन चलाचल थायों। लागी आगि वुझावन कारन, चाहत कूप खुदायो॥ भजन॥ कवि बुधजनकी भाषापर राजस्थानी भापाका प्रभाव ही नहीं है अपितु इन्होंने राजस्थानी मिश्रित बज भापाका प्रयोग किया है। पदो प्रवाह और प्रभाव दोना ही विद्यमान है । रूपकोंमे भाषाकी लाक्षणिकत और वर्णोंका विचित्र विन्यास भी है। जैन-पट-रचयिताओमें कवि वृन्दावनका भी प्रतिष्ठित स्थान है इनके पदोंमे भक्तिकी उच्च भावना, धार्मिक सजगता और आत्म निवेदन विद्यमान है। आत्म-परितोपके साथ लोक हित सम्पन्न करना ही इनके काव्यका उद्देश्य है। यद्यपि इनके पदोंमें मौलिकताका अभाव है। हॉ भनि-विहल्ता और विनम्र आत्म-समर्पणकै कारण अभिव्यंजना शक्ति पूर्णरूपेण विद्यमान है। इनकी भावनाएँ आत्मजगत्की सीमासे बाहर निकलकर सर्वसामान्यके साथ सहानुभूति रखती हैं। इनकी भक्ति केवल आत्म-परितोपी ही नहीं, विश्वव्यापक भी है । सुकुमार भावनाएँ और लयात्मक संगीतने अनुभूति और कल्पनाका समन्वय प्रस्तुत किया है। निराशाके वाट आगाका सदेश और आराध्यम अटूट विश्वास इनके पदोका प्राण है । कवि कहता है - निशदिन श्रीजिन मोहि अधार ॥ टेक ॥ जिनके चरन-कमलके सेवत, संकट कटत अपार ॥ निशदिन० ॥ जिनको वचन सुधारस-गर्भित, मेरत कुमति विकार निशदिन०॥
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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