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________________ हिन्दी-जैनगीतिकाव्य रंच सवाद करन के काजै, नरकन में दुख भरना क्या है। काल० ॥ कुलजन पथिकन के काजै, नरकन मैं दुख भरना क्या रे ॥ काला ॥ आज दर्शन हो जाने पर कविने आत्माका विश्लेषण एक भावुकके नाते बड़ा ही सरस और रमणीय किया है। कवि कहता है मैं देखा आतम रामा ॥ टेक॥ रूप, फरस, रस, गंध ते न्यारा, दरस-ज्ञान गुन धामा। नित्य निरंजन नाकै नाही, क्रोध, लोभ-मद कामा । मैं देखा०॥ भूख-प्यास सुख-दुख नहिं जाके, नाही वनपुर गामा। नहिं साहब नहिं चाकर भाई, नहीं तात नहिं मामा ॥ मैं देखा० ॥ भूलि अनादि थकी जग भटकत, लै पुलका जामा । 'बुधनन' संगति जिनगुरुकी ते, मैं पाया मुझ ठामा । मैं देखा० ॥ इनके पदोको भी दो भागोमे विभक्त किया जा सकता है-भक्ति या प्रार्थनापरक और तथ्यनिरूपक या दार्शनिक । दोनों प्रकारके पदोका वर्ण्य विषय भी प्रायः वही है । जिसका निरूपण पूर्वमे किया जा चुका है। ___ भगवद्भक्ति के विना जीवन किस प्रकार विषयोंमें व्यतीत हो जाता है | विषयी प्राणी तप, ध्यान, भक्ति, पूजा आदिमे अपना चित्त नही लगाते। उन्हे परपरिणति ही अयतर प्रतीत होती है। पर मक्ति द्वारा सहनमें मानवको आत्मबोध प्राप्त हो जाता, जिससे वह चैतन्याभिराम गुणग्राम आत्माभिरामको प्राप्त कर लेता है । जबतक शरीरमे बल है, शक्ति है, तभी तक प्रमु-भजन या प्रभु-व्यानकी क्रियाको सम्पन्न किया जा सकता है, परन्तु शरीरके शिथिल हो जानेपर भक्ति-भावनाको सम्पन्न नहीं किया जा सकता। अतएव शरीरके स्वस्थ रहनेपर अवश्य ही प्रभु-भजन करना चाहिये । कवि इसी तथ्यका निरूपण करता हुआ मानव जीवनका विश्लेपण करता है
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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