SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन । अपनेको उज्ज्वल बनानेका प्रयास किया है। किन्तु दास्यताकी यह भावना सर्वत्र परतन्त्र बनानेवाली नहीं है। दूसरी श्रोणीके पदोंमे जीवको अजानताकै कारण होनेवाले परिणामोंको दिखलाकर सावधान करनेका प्रयास किया है। अज्ञानी पाप धतूरा न बोय ॥ टेक ॥ फल चाखनकी वार भरै ग, मरहै मूरख रोय ॥ अज्ञानी० ॥१॥ किन्चित् विपयनके सुख कारण दुर्लभ देह न खोय । ऐसा अवसर फिर न मिलेगा, इस नीदडी न सोय ॥ अज्ञानी०॥२॥ भावुक कविने अन्तस्मे मायाकी वञ्चकताका अनुभव कर उसके मोहक रूपका बड़ा ही सुन्दर विश्लेषण किया है। कविने मायाको ठगनीका रूपक देकर उसके घृणित रूपका, जिसे विषयी जीव मोहक समझते है, मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। सुन उगकी माया ते सब जग उग खाया ॥ टेक ॥ टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पिछवाया ॥ सुन० ॥१॥ विकारग्रस्त मानव अहके वशीभूत हो ससारमें असमताका व्यवहार करता है, नाना कामनाओंको अन्तस्मे समेटे स्वमलोकमे विचरण करता रहता है, उसके सकल्प कच्चे धागेके समान बाधा और विघ्नोके हल्के झोंकेसे ही टूट जाते है । ससारके मायावी बधन उसे जकड़ते जाते हैं, अतः वस्तुस्थितिका यथार्थ दर्शन कराता हुआ कवि निराशामें आशाकी किरणोंका आलोक वितरण करता है । तथा "एकौं के घर मंगल गावे, पूगी भनकी आसा । एक वियोग भरे बहु रोच, भरिभरि रैन निरासा ॥" में कितना सुन्दर यथार्थका चित्रण हुआ है। कविका यथार्थ जीवनकै शाश्वत सत्यसे सयुक्त है । यद्यपि यह चित्रण ससारके वास्तविक रूपको
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy