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________________ पुरातन कान्य साहित्य लोवा फिरि-फिरि दरस दिखावा । सुरभी सन्मुख शिशुहिं पिमावा ॥ मृगमाला दाहिन दिशि आई। मंगल गन जनु दीन्ह दिखाई ॥ वात्सल्य और शृङ्गार रसके मर्मज्ञ कवि सूरदास भी देशी भाषाके जैन कवियोसे अत्यधिक प्रभावित है । सूरने पदोकी रचना देशी भाषाके जैन कवियोकी शैलीके आधारपर की है। देशी भाषाके जैन कवियोने दो चरणोका एक चरण माना है, वे चौपाईके चार चरण नहीं लिखते, दो ही चरणमे छन्द समाप्त कर देते हैं। कहीं-कहीं एक चरण रखकर उसे ध्रुवकके रूपमे कुछ पक्तियोंके बाद दुहराया गया है। यही प्रक्रिया पदोकी टेक बन गयी है । देशी भाषामें संगीत और लयका समन्वय अपूर्व है। इस भापाका काव्य वाद्यके साथ गेय गीतोमे माधुर्य और ताल्के साथ गाया जा सकता है । सूरदासने इसी शैलीको अपनाया है। बाललील और शृङ्गारका वर्णन जैन साहित्यकी देन है । हेमचन्दके व्याकरणमे प्रोषितपतिकाके अनेक सुन्दर सरस उदाहरण आये है, जो गोपियोकी विरह-विह्वल दशाका चित्र उपस्थित करनेमे सक्षम हैं । कवि पुष्पदन्तने ऋषभदेवकी बाललीलाका वर्णन बड़े ही सुन्दर ढगसे किया है। हमारा अनुमान है कि यह मक्त कवि बाल-चित्रणमे जैनकवियोसे अत्यधिक अनुप्राणित हैं। उदाहरणके लिए दो-चार पद्य उद्धृत किये जाते हैं। सेसवलीलिया कीलमसीलिया। पहुणादाविया केण ण भाविया ।। धूलीधूसरु ववगयकडिल्लु । सहजायक विलकॉतलु जडिल्लु ॥ हो हल्लरु जो जो सुहं सुमहिं पई पणवंतउभूयगणु । गंदइ रिझइ दुकियमलेण कासुवि मलिगुण ण होइ मणु । धूली धूसरो कति किंकिणीसरो। णिरुबमलीलड कीलह वालड । -पुष्पदन्त-महापुराण-प्रथमखण्ड
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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