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________________ पुरातन काव्य-साहित्य अपभ्रंश प्रवन्ध-काव्योमे वस्तुव्यापार वर्णन भी सुन्दर है। संवाद इतने प्रभावोत्पादक हुए हैं, जिससे इन प्रवन्धकारोंकी सहृदयताका सहज ही पता लगाया जा सकता है। यद्यपि वस्तु पुरातन है, पर जीवनकै बाह्य और आन्तरिक दृश्योंका इतनी कुशलता और सूक्ष्मतासे उद्घाटन किया है, जिससे प्रबन्ध सहजमे ही चमत्कारपूर्ण हो गये हैं। ___ भावव्यञ्जना इन अपभ्रश प्रबन्ध-काव्योंमें इतनी स्पष्ट है, जिससे पढ़ते ही हृदयकी रागात्मक वृत्तियोंमे सिहरन उत्पन्न हो जाती है। मननशील प्राणोके आन्तरिक सत्यका आभास जो कि जीवन के स्थूल सत्यसे भिन्न है, प्रकट हो जाता है । जीवनकी अन्तस्चेतना तथा सौन्दर्षभावना उद्बुद्ध हो चिरन्तन सत्यकी ओर अग्रसर करती है। इन प्रबन्धकारोने घटनावर्णन, दृश्य-योजना, परिस्थिति-निर्माण और चरित्र-चित्रणमें ही अपनेको उलझानेका प्रयास नहीं किया है, बल्कि भाव, रस और अनुभूतिकी अभिव्यञ्जना भी अनूठे ढगसे की है। देशी भाषाके जैन-प्रबन्ध-कार्योकी रचनाशैलीके आधारपर जायसी, तुलसी तथा विद्यापति आदि कवियोने अपने काव्योंका निर्माण किया है। पद्मावत और रामचरितमानसमें बहुत-सी बातें पउमचरिउ और भविसदेशी भापाके प्र यचकहाको ज्यो-की-त्यो पायी जाती हैं। जिस काव्योंका जायसी, प्रकार देशी भाषाके जैन-प्रबन्ध कायोंका आरम्भ तुलसी वथा हिन्दीके स ईश-वन्दनासे हुआ है, उसी प्रकार पद्मावत और रामचरितमानसका भी। जैन-प्रवन्धकारोंने देशी """'भाषाके प्रबन्ध कायोंमें जैसे बत्तीस मात्राओंकी : अर्धालियोवाले पंझटिका या अलिला नामक कतिपय छन्दोके बाद बासठ मात्राओंवाला पत्ता रखा है, वैसे ही जायसी' और तुल्सीने भी बत्तीस -जायसीके पभावतका रचनाकाल सन् १५४०, धनपालजी भवि-] सयत्तकहाका रचनाकाल लगभग १००० ईस्वी सन्।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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