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________________ २११ सफलता प्राप्त हुई है । अपनेको तटस्थ रखकर सत्कर्म और दुष्कमोंपर दृष्टि डाना तथा इन्हे जनताके समक्ष खोलकर कच्चे चिट्ठी के रूपमे रखना, कविका बहुत बड़ा साहस है । इसी साहसके कारण उनका यह आत्मकथा - काव्य आजके पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानोके लिए अनुकरणीय है । आत्मकथाकी सफल्टताके लिए जिन उपादानोंकी आवश्यकता है, वे सभी उपादान इसमे विद्यमान है । अतः यह हिन्दी साहित्य में सबसे पुराना आत्मकथा-कान्स है । भाषाकी सरलता और शैलीका सुस्पष्ट विधान इसका प्राण है । हिन्दी ससारको इसका वास्तविक रूपमे अनुसरण करना चाहिए । आत्मकथा -काव्य
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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