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________________ २१८ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन अशुमोदयको ही अपनी क्षतिका कारण समझा | संवत् १६९८ में अपनी तीसरी पत्नीके साथ बैठे हुए कवि कहता है नौ वालक हुए मुए, रहे नारिनर दोइ । ज्या तरवर पतमार है, रहैं मूंठसे होइ । दूसरी स्त्रीको मृत्युकै उपरान्त कविने तीसरी शादी की तथा इसी बीच कविने अनेक रचनाएँ लिखीं चले वरात वनारसी, गये चाडसू गाय । वच्छा सुतकी व्याह करि, फिर आये निजधाम ॥ अरु इस वीचि कवीसुरी, कीनी बहुरि अनेक । नाम 'सूक्तिमुकावली', किए कवित सौ एक ॥ 'अध्यातम वत्तीसिका' 'पपडी 'फाग धमाल । कांनी 'सिन्धुचतुर्दशी' फूटक कवित रसाल । 'शिवपञ्चीसी भावना' 'सहस अठोत्तर नाम। 'करम उचीसी' 'झलना' अन्तर रावन राम ॥ वरनी ऑखें दोइ विधि, करी 'वचनिका' दोइ। 'भष्टक' 'गीत' बहुत किए, कहाँ कहालौ सोइ ॥ इस आत्मकथामें कविने अपना ५५ वर्षोंका चरित स्पष्टता और सत्यतापूर्वक लिखा है। कविने सत्यताके साथ जीवन की घटनाओंका यथार्थ चित्रण करनेमें तनिक भी कोर-कसर नहीं की है। वस्तुतः कविके जीवनकी घटनाएँ इतनी विचित्र है, जिससे पाठकोंका सहनमे मनोरजन हो सकता है। कविमे हात्यरसकी प्रवृत्ति अच्छी मात्रामे विद्यमान है, जिससे हँसी-मनाकके अवसरोंको खाली नहीं जाने दिया है। सिनेमाके चलचित्रोंके समान मनमोहक घटनाएँ प्रत्येक पाठकके मनमें गुदगुदी उत्पन्न किये विना नहीं रह सकती। ६७५ दोहा और चौपाइयोमें लिखी गयी इस आत्मकथामें कविको अपना चरित्र चित्रित करनेमें पर्यास
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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