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________________ पुरातन काव्य-साहित्य २७ ३-मिथ्यामिमान छोड़कर उदारतापूर्वक विचार सहिष्णु बनना तथा अपनी भूलको सहर्ष स्वीकार करना। ४-तत्त्वज्ञानके चिन्तन-द्वारा अहंभावका इदभावके साथ सामञ्जस्य प्रकट करना। सम्यकवारित्र जन्य १.-निर्मय और निर होकर शान्तिके साथ जीना और दूसरोको जीवित रहने देना। २-अहिंसा और संयमके समन्वय-द्वारा अपनी विशाल और उदारदृष्टिसे विश्ववन्धुत्वकी भावनाको जागृत करना। ३-वासना, इच्छा और कामनाओपर नियन्त्रण करना तथा आत्मासोचनमे प्रवृत्त होना। ४-दया, ममता, करुणा आदिके उद्घाटन द्वारा मानवताको प्रतिठित करना। ५-मौतिकवादकी मृगमरीचिकाको अध्यात्मवादकी वास्तविकताद्वारा दूर करना। । ६-शोषित और शोषकमे समता लाने के लिए अपरिग्रहवाद और संयमको जीवनमे उतारना। ७-शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्यके लिए शुद्ध आहार-विहार करना। पुरातन काव्य-साहित्य [८वीं शतीसे १९वी शतीतक] अपनश भाषाकी उत्पत्ति पाँचवीं शतीमे हुई थी और छठवीं शतीम यह देशी भापाका रूप ग्रहण कर चुकी थी। अतः छठवी शतीसे ग्यारहवी गतीतक इस भाषामे पुष्कल परिमाणमे साहित्यका सृजन होता रहा । आगे चलकर इसी मापाने हिन्दी-भाषी प्रान्तोमें हिन्दीका रूप और अन्य माषा-भाषी प्रान्तोमे मराठी, गुजराती आदि भाषाओका रूप धारण किया।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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