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________________ २६ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन पूर्ण नीतिका उन्मूलन कर अनेकनामे एकता, विचारोमे उदारता एव सहिष्णुता उत्पन्न करता है। यह विचार और कथनको संकुचित, हठ एव पक्षपातपूर्ण न बनाकर उदार, निष्पक्ष और विशाल बनाता है। वस्तुतः जीवन अहिंसक तमी बन सकता है, जब आचार और विचार दोनो अहिंसक हो जायें । पूर्ण अहिसक ही राग-द्वेष और कर्म-बन्धनका ध्वंसकर मोक्ष या निर्वाणको प्राप्त करता है। मानव-जीवनका चरम लक्ष्य निर्वाण या मोक्षको प्राप्त करना ही है। इस समित दार्शनिक विवेचनकै प्रकाशमें हिन्दी-जैन-साहित्यकी पृष्ठभूमिकी निम्न भावनाएँ है: सम्यग्दर्शन जन्य १-अपनेको स्वयं अपना भाग्यविधाता समझकर परोम शक्तिईश्वरादि शक्ति सुख-दुःख देनेवाली है, विश्वासको छोड़ पुरुषार्थमें प्रवृत्त होना। २-आत्माके अस्तित्वका विश्वासकर मन-वचन-कायके अपने प्रत्येक क्रिया-व्यापारको अहिंसक वनाना। ३-अपने पुरुषार्थपर विश्वासकर सर्वतोमुखी विशाल दृष्टि प्राप्त करना। ४--राग-द्वेषादि सस्कार अनात्ममाव है, यह विश्वास उत्पन्न करना। सम्यग्ज्ञान जन्य १-चैयक्तिक विकासके लिए हृदयकी वृचियोसे उत्पन्न अनुभूतियोको विचारके लिए बुद्धि के समक्ष उत्पन्न करना और बुद्धि-द्वारा निर्णय हो जानेपर कार्यमें प्रवृत्त हो जाना। २-विरोधी विचार सुनकर घबड़ाना नहीं, अपने विचारोके समान अन्यके विचारोका मी आदर करना तथा अपने विचारोपर भी तीन आलोचनात्मक दृष्टि रखना।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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