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________________ १९० हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन तातें बढ़ौ गुन कागमै देखिये, जात बुलायक भोजन ठानें । लोभ दुरौ सव औगुनमैं इक, ताहि तजै तिसको हम मानें । दान देनेकी सार्थकताका निरूपण करता हुआ कवि कितने मर्मस्पशी ढंगसे कहता है दीनकौं दीजिये होय दया मन, मीतकौं दीजिये प्रीति बढावै। सेवक दीजिये काम करै वहु, साहव दीजिये आदर पावै ॥ शत्रुको दीजिये वैर रहै नहि, भाटकौं दीजिये कीरति गावै। साधकौं दीजियै मोखके कारन, 'हाथ दियौ न अकारथ जावै । इसमे कविने अपनी वैयक्तिक आत्मानुभूतिको जागृत करते हुए इस मानव जीवनको सुखी बनानेवाली अनेक वातोका निरूपण किया है। न्यौहारपञ्चीसी म र ज्ञानेन्द्रियोंके माध्यमसे मन जिन भावनाओं, सवेद " नाओको ग्रहण करता है, उनका किसी न किसी प्रकारका चित्र हृदयपटलपर अवश्य अकित हो जाता है। वातावरण, परिस्थिति, सस्कार आदिकी विभिन्नताकै कारण कविकै हृदयपटपर अनेक वस्तुओंके विविध चित्र उतरे है, अत: उसने अपने अन्तस्मे जगत्का अनुभव जिस रूपमें किया है, उसे व्यावहारिक रूप देकर व्यञ्जित करनेका उपक्रम किया है। बाह्यजगत्मे तभी सुख-शान्ति स्थापित हो सकती है, जब मानवका हृदय स्वच्छ हो जाय | व्यक्तित्वके परिष्कारके लिए सयम, त्याग और अहिंसातत्वकका अपनाना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है। जो व्यक्ति इष्ट-वियोग और अनिष्ट-सयोगमें घबड़ा जाता है, जीवनमे निराश हो जाता है। कविने उसके मनमे सन्ध्या समय सरिताके उस पार सुदूर आकाशके कोनेमे उठे किसी नवीन वादलमे विद्युत्की रेखाओंके समान उज्ज्वल आशाका सचार करते हुए कहा है पीतम मरेको सौच कर कहा नीव पोच, तजे ते अनन्त भव सो कछु सुरत है।
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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