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________________ प्रकीर्णक काव्य इस रचनामे कवि द्यानतरायने दानका महत्त्व, आदर्श, उपयोगिता एवं सहकारिताकी भावनाका अकन किया है । कविने कोमल, कमनीय कल्पनाओका सृजनकर जीवनकी विषमताओंका दानवाचनी समाधान करनेका आयास नहीं किया है, प्रत्युत जीवनकी ठोस भावभूमिमें उतरकर प्रकृत राग-द्वेर्षो के परिमार्जनका विधान बताया है । अनन्त आकाक्षाऍ दान, त्याग, सन्तोषके अभाव मे वृद्धिंगत होती हुई जीवनको दुखमय बना देती है । कविने अपने अन्तस्मे इस चातका अनुभव किया कि यह मानव जीवन वढ़ी कठिनाईसे प्राप्त हुआ है, इसे प्राप्तकर यों ही व्यतीत करना मूर्खता है, अतः 'सर्वजनहिताय' की प्रेरणासे प्रेरित होकर कवि यह कहता है १८९ मौन कहा जहाँ साधन आवत, पावन सो भुवि तीरथ होई । पाय प्रछालक काय लगायक, देहकी सर्व चिया नहिं खोई ॥ दान कस्यो नहिं पेट भयौ बहु, साधकी आवन वार न जोई। मानुष जोनिक पायकैं मूरख, कामकी बात करो नहिं कोई ॥ मानवकी तृष्णा प्रज्वलित अग्निमें डाले गये ईधनकी तरह वैभवविभूतिके प्राप्त होनेपर उत्तरोत्तर वृद्धिंगत ही होती जाती है । जिन बाह्यपदार्थोंमे मानव सुख समझता है और जिनके पृथक् हो जानेसे इसे दुःख होता है, वास्तवमे वे सब पदार्थ विनाशीक हैं। लोभ और तृष्णा मानवको अशान्ति प्रदान करती हैं, इन्ही विकारोंके आधीन होकर मानव आत्मसुखसे वचित रहता है। सूम व्यक्ति उपर्युक्त विकारोके आधीन होकर ही सम्पत्तिका न स्वयं उपभोग करता है और न अपने परिवारको ही उपभोग करने देता है। कविने ऐसे व्यक्तिकी कौएसे तुलना करते हुए इस पामरको ateसे भी नीच बतलाया है । कवि कहता है- 1 सूमको जीवन है जगमें कहा, आप न खाय खवाय न जानें दर्वके बंधन माहिं बँध्यो दृढ़, दानकी बात सुनै नहिं कानें ॥
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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