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________________ हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन सरस रूपमे अकित की है। यहाँ कुछ रचनाओंके सम्बन्धमे प्रकाश डाला जायगा । सूक्तिमुक्तावली संस्कृत भाषामे कवि सोमप्रभने सूक्तिमुक्तावलीकी रचना की है। कविवर बनारसीदासने इसका इतना सरल और सरस अनुवाद किया है कि अनुवाद होनेपर भी इस रचनामे मौलिकताका आनन्द आता है। कविने जीवनोपयोगी, आत्मोत्थानकारी बातें अद्भुत ढगसे उपस्थित की है। मूर्ख मनुष्य इस मानव जीवनको किस प्रकार व्यर्थ खोता है, इसका निरूपण करता हुआ कवि कहता है कि जैसे विवेकहीन मूर्ख व्यक्ति हाथीको सजाकर उसपर ईंधन ढोता है, सोनेके पात्रमे धूल भरता है, अमृतसे पैर धोता है, कौएको उड़ाने के लिए रत्न फेककर रोता है, उसी प्रकार वह इस दुर्लभ मानव शरीरको पाकर आत्मोद्धारके विना योही खो देता है । कविका निरूपण जितना प्रभावोत्पादक है, उतना ही भर्मस्पर्शीं भी है । कवि कहता है 1 १८२ ज्यों मतिहीन विवेक विना नर, साजि मतङ्गज ईंधन ढोवै । कंचन भाजन धूल भरै शठ, मूढ सुधारस सो पग धोवे ॥ वाहित काग उड़ावन कारण, डार उदधि मणि मूरख रोवे । त्यों यह दुर्लभ देह 'घनारसि' पाय अजान अकारथ खोवै ॥ मी कितनी चचल होती है और यह कितने तरहकी विलास लीलाएँ करती है, इसका चित्रण करता हुआ कवि कहता है कि वह सरिताके जलप्रवाहके समान नीचकी ओर ढलती है, निद्राके समान बेहोशी बढ़ाती है, बिजलीकी तरह चचल है तथा धुँएके समान मनुष्यको अन्धा बनाती है । यह तृष्णा अग्निको उसी तरह बढ़ाती है जैसे मदिरा मत्तताको । वेश्या जिस तरह कुरूप सुरूप, शूद्र-ब्राह्मण, ऊँच-नीच, विद्वान-मूर्ख, आदिसे दिखावटी स्नेह करती है, उसी प्रकार यह भी सभीसे कृत्रिम प्रेम करती है । वेश्याके समान ही विश्वघातिनी और नाना दुर्गुणोंकी खान है । कचि इसी आशयको स्पष्ट करता हुआ कहता है
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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