SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकीर्णक काव्य मानवको अनात्म-भावनाओंसे मोड़कर आत्मभावनाओंकी समचतुरस्र भूमिमें ले जाता है और वहाँ जीवनका यथार्थ परिज्ञान करा देता है, उसे स्थायी साहित्यका निर्माता माननेमें किसीको भी आपत्ति नहीं होनी चाहिये। हॉ, जहॉपर भावोकी अप्रतिहत धारा न होकर कोरा उपदेश रहता है, वहाँ निश्चय ही काव्य निष्प्राण हो जाता है । जैन प्रकीर्णक काव्य के निर्माताओंने अपार भाव-भेदकी निधिको लेकर प्रायः श्रेष्ठ काव्य ही रचे है, जो युग-युगतक सास्कृतिक चेतना प्रदान करते रहेगे । १८१ काव्यके सत्य, शिव और सुन्दर इन तीनो अवयवोंमेसे जैन प्रकीर्णक काव्योंमें शिवत्व - लोकहितकी ओर विशेष ध्यान दिया है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि सत्य और सुन्दरंकी अवहेलना की गयी है । इन काव्योमे सौन्दर्य और सत्यकी स्वाभाविकता इतनी प्रचुरमात्रामे पायी जाती है, जिससे उदात्त भावनाओका सचार हुए बिना नही रहता । तथ्य यह है कि लोकहितकी प्रतिष्ठा के लिए जैन प्रकीर्णक काव्य रचयिताभने रचनाचातुर्य के साथ मानसिक शक्तिके निमित्त सद्वृत्तियोंकी आवश्यकता अनिवार्य रूपसे प्रतिपादित की है। कबि बनारसीदासकी सूक्तिमुक्तावली, ज्ञानपच्चीसी, अध्यात्मबत्तीसी, कर्मछत्तीसी, मोक्षपैड़ी, शिवपच्चीसी, ज्ञानवावनी; भैया भगवतीदासकी पुण्यपञ्चीसिका, अक्षरबत्तीसिका, शिक्षावली, गुणमंजरी, अनादिवन्तीसिका, मनबत्तीसी, स्वप्नबत्तीसी, वैराग्यपच्चीसिका, आश्चर्यचतुर्दशी; कांव रूपचन्दका परमार्थ- शतक दोहा, कवि द्यानतरायका 'सुबोधपचासिका ' धर्मपच्चीसी, व्यसन त्याग षोड़श, सुखवत्तीसी, विवेकबीसी, धर्मरहस्यबावनी, व्यौहारपच्चीसी, सज्जनगुणदशकः कवि आनन्दघनकी आनन्दबहत्तरी; भूघर कविका जैनशतक, बुधजन कविकी बुधजन सतसई; डालूरामका गुरूपदेश श्रावकाचार एवं दौलतराम कविकी छहढाला प्रसिद्ध प्रकीर्णक काव्य हैं । इन सभी कवियोंने आचार और नीतिकी अनेक बातें
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy