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________________ आध्यात्मिक रूपक काव्य १४३ वे पदार्थ आत्मासे भिन्न प्रतीत होने लगते है । शरीर एव बाह्य भौतिक 'पदार्थोंकी आत्मासे पृथक् अनुभूति होने लगती है । कवि इसी परिवर्तनकी अवस्थाका चित्रण करता हुआ कहता है-- आत्म-ज्ञानकै अभावमे मानवका हृदय माया-मोह और बेचैनीसे व्यथित रहता है, जिससे प्राणिहिंसा, असत्य आदि दुष्प्रवृत्तियाँ शाध्वत सत्यको प्राप्त करनेमे अत्यन्त बाधक होती है । कुत्सित रूपोमे राग या द्वेष दोनों ही प्रकारकी वृत्तियाँ दुःख परम्पराको उत्पन्न करती हैं। राग-द्वेषके नाना सकल्प मोहके विकारको उद्बुद्ध करते हैं । क्रोध, मान, माया और लोभ ये अन्तरात्माक भयंकर -दोप है । इनका पूर्णरूपसे त्याग करनेपर ही ज्ञानभावकी उत्पत्ति होती है । जिस प्रकार सूर्यके उदय होनेसे घना अन्धकार दूर हो जाता है, जलकी वर्षा होनेपर दावाग्नि शान्त हो जाती है एव वसन्तागमन जानकर कोयल कूकने लगती है उसी प्रकार ज्ञान भावके उदित होते ही मोह, 'पाप, भ्रम, अज्ञान, दुष्प्रवृत्तियॉ क्षणभरमे पलायन कर जाती हैं। हिरदै हमारे महामोहकी बिकलताई, ताते हम करुना न कीनी जीवघातकी । आप पाप कीने औरनिको उपदेश दीने, दुती अनुमोदना हमारे याही बातकी ॥ मन, वच, काया में मगन है कमायो कर्म, धाये भ्रमजाल में कहाए हम पातकी । ज्ञानके उदयतें हमारी दशा ऐसी भई, जैसे भानु भासत अवस्था होत प्रातकी ॥ आत्मामे अशुद्धि परद्रव्यकै सयोगसे आतो है । यद्यपि मूल द्रव्य अन्य प्रकार रूप परिणमन नही करता है, फिर भी पर द्रव्यके निमित्तसे अवस्था सलिन हो जाती है । जब सम्यवत्वके साथ ज्ञानम भी सच्चाई उत्पन्न होती तो ज्ञानरूप आत्मा परद्रव्योसे अपनेको भिन्न समझकर शुद्धात्मावस्थाको
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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