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________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन कल्पनाका चादर डाल रखा है । इस शय्यापर अचेतनकी नीदमें चेतन सोता है । मोहकी मरोड़ नेत्रोका बन्द करना-झपकी लेना है। कर्मके उदयका बल ही श्वासका घोर शब्द है और विषय सुखकी दौर ही स्वप्न है। इस प्रकार तीनो कालोमे अजानकी निद्रामे मन यह आत्मा श्रमजालम ही दौड़ती है, अपने स्वरूपको कभी नहीं पाती। अज्ञानी जीवकी यह निद्रा ही ससार-परिभ्रमणका कारण है। मिथ्यात्व-तत्त्वोकी अश्रद्धा होनेसे ही इस जीवको इस प्रकारकी निद्रा अभिभूत करती है। आत्मा अपने शुद्ध, निर्मल और शक्तिशाली स्वरूपको विस्मृत कर ही इस व्यापक असत्यको सत्य रूपमे समझती है। अतः कवि यथार्थताका विश्लेषण करता हुआ कहता है काया चिनसारीमें करम परजंक भारी, मायाकी सवारी सेन चादर कलपना। शैन करे चेतन अचेतनता नीद लिए, मोहकी मरोर यह लोचनको उपना ॥ उदै वल जोर यहै श्वासको शबद घोर, विष सुखकारी जाकी दौर यह सपना । ऐसी मूढ़ दशाम मगन रहे तिहुकाल, धावे श्रम-जालमें न पावे रूप अपना ॥ कविने रूपक द्वारा अज्ञानी जीवकी उक्त स्थितिका मार्मिक चित्रण किया है । वस्तुतः आत्मा सुख-शान्तिका अक्षय भण्डार है, इसमे ज्ञान, सुख, वीर्य आदि गुण पूर्ण रूपेण विद्यमान है, अतएव प्रत्येक व्यक्तिको .इसी शुद्धात्माकी उपलब्धि करनेके लिए प्रयत्नशील होना चाहिये । जानका प्रकाश होते ही हृदय परिवर्तित हो जाता है। परिरकृत हृदयमे नानाप्रकारकी विचार-तरंग उठने लगती है। एकाएक सारी स्थिति बदल जाती है। जिन पर-पदाथामे निजबुद्धि उत्पन्न हो गयी थी,
SR No.010038
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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