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________________ [ ४ ] करिलेओ संसार वन्धन प्राप्त हुन ना ( २१ श्लोक ) जैनदर्शने पूर्वोक्त उपदेशगुलिर तात्पर्य यथायथरूपे सन्निवेशित हया । इहाद्वाराइ प्रतिपन्न हय, ये जैनदर्शनेर मोक्षोपायपद्धति शास्त्र सम्मतओ मानव मात्रेर उपयोगी । आईत प्रवर श्रीहरिभद्र सूरि विरचित जैन दर्शन समुचय नामक जनतीर्थङ्करेर येरूप लक्षण उदाहृत हइयाछे ताहा सकलेरड प्रणिधानयोग्य एवं उद्दाद्वाराइ जैनगण कोन पथेर पथिक ताहा स्पष्टरूपे प्रतिभात हय । जिनेन्द्रो देवता तत्र रागद्वे पविवर्जितः । हतमोह-महामल्लः केवल - ज्ञानदर्शनः ॥ सुरा - सुरेन्द्र-संपूज्यः सद्भुतार्थे पदेशकः । कृत्स्न कर्म्म क्षयं कृत्वा संप्राप्तः परमं पदम् ॥ उक्त श्लोव.द्वयेर तान्पद्वारा प्रमाणित हुय ये जिनगण रागद्वे पहीन अर्थात् ताहारा सांसारिक स्नेहरागात्मक राग एवं निग्रहात्मक प जय करियाछेन । उक्त रागद्वेप उभयइ मुक्तिर प्रतिरोधक | जिनगण हिंसादि मोहशून्य एवं ज्ञानदर्शन चारित्र द्वारा सदसन निर्णय करिते समर्थ । जैनशास्त्रे शुभाशुभकर्म्म प्रवृत्ति बन्धनेर हेतु वलिलेओ आत्मार ऊद्वर्व क्रान्तिर पथे अहिंसा संचन तपस्यादि आध्यात्मिक कर्मेर प्रवृति धर्म्म बलिया अभिहित हझ्याछे । इहाद्वारा स्पष्टइ प्रतीयमान हथ ये, ये कम्मर अनुष्ठानफले जीवेर नरदेवतादिरूपे अवतीर्ण हइया पापपुण्य जनित फलभोग करिते हय, तादृश कर्मकेइ बन्धनस्वरूप वलियाडेन । तादृश कन्मेर क्षये आध्यात्मिकतार प्रभाव अनुभूत हय। आध्यात्मिक कर्म्मत्यागेर कथा जैनशास्त्र नाइ ।
SR No.010036
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnibhushan Bhattacharya
PublisherParshwanath Jain Library Jaipur
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size5 MB
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