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________________ १२४ दश-वैकालिक-सूत्र 1 अष्टम अध्ययन | क्षान्ति द्वारा, क्रोध रिपू विनाश करिवे । मार्दव, प्रकाशि मान, स्ववशे अनिवे ॥ सरलता - भावद्वारा मायाके जितिने । लोभके सन्तोप द्वारा आयते आनिवे ||३६ असंयत क्रोध मान दुर्द्वार जगते । वर्द्धमान माया लोभ आछे सकलेते ॥ चारिटि कपाय नामे उहारा कथित । क्लेशकारी मनुष्येर अधर्म्म जड़ित । पुनर्जन्म-रूपतरु - मूल सिव हाय । कुभाव सलिल द्वारा सतत कपाय ॥ ४० विनयादि गुणयुक्त-साधक सुजते । चिर-सुदीक्षित-साधु तुपिवे पूजने ॥ ना छाड़िवे साधु शील, आठार हाजार । तपोरत साधुजन भूपण धरार ॥ स्वीय अङ्गोपाङ्ग, साधु कछप मतन । सुरक्षित करिवारे करिवे यतन ॥ परम धरम कार्य तपस्या संयम । ताहाते देखावे. साधु अति पराक्रम ॥४१ करेन निद्राके साधु अति अनादर । अट्टहास परिहारे हयेन तत्पर ॥ अनृत भाषण होते हयेन विरत । थाकेन. साधक. सदा स्वाध्यायेते रत ||४२ · ·
SR No.010036
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnibhushan Bhattacharya
PublisherParshwanath Jain Library Jaipur
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size5 MB
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