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________________ [४] अंसचतात्मार पंक्षे योगे सिद्धिलीभं करी अत्यन्तै कष्टसाध्य । आत्मदर्शनइ जीवेर उद्धर्व क्रान्तिर एकमात्रं पथ। अहिंसा दि उहार साधन । सदसत् विचारइ अज्ञानान्धकार दूर करिवार सर्वोत्कृष्ट उपाय एई अमोघ तत्वगुलि जैन साधुगण सर्वत्र प्रचार करिया चिलेन । श्रुतितेओ आर्छ : "आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्योमन्तव्यो निदिध्यासितव्यः ।" । मुमुक्षु साधु आत्माके दर्शन करिवेन यहेतु मुक्ति-कामीर पक्षे आत्मदर्शनइ अभीष्टलाभर उपायरवरुप । आत्मदर्शन कि प्रकारे सम्भव हहवे एइरुप प्रश्न उत्थापित हइले पलिते हवे ये आत्मदर्शन करते हइले आत्मार श्रवण, मननओ निदिध्यासन अत्यावश्यक । जैनाचार्यगण पूर्वोक्त श्रुतिर तात्पर्य साधनावले अनुभव करिया एवं आत्मदर्शनइ धर्मर मूलभित्तिरवरूप हृदयगम करिया आत्मग्लानिसूचक वेदादिगृहोत-हिंसात्मक नियम पद्धतिगुलिके परित्याग करेन एवं विशुद्ध आत्मार विमलप्रभाय देदीप्यमान हइया संसाराणवेर विनतरङ्गर घातप्रतिघात विदूरित करिते वद्धपरिकर हन । जैनाचार्यगण आध्यात्मिकताय विशिष्टस्थान अधिकार करिया अहिंसाधर्मर जाज्वल्यमान प्रमाण प्रदर्शन करियालिलेन । उहादेर न्याय अनुष्ठित आध्यात्मिकर्मानुष्ठानेर कठोरता आर कोथायओ परिलक्षित हय ना । आत्मचेतना-समुत्सुक साधुरा पञ्चमहाव्रत त्रिविधकरण योग पालन करिया सच्चिदानन्द आत्मार विमलप्रभा अनुभव करेन । जैनगण मुक्त आत्मा भिन्न स्वतन्त्र ईश्वरेर अस्तित्व स्वीकार करेन ना किन्तु आत्माकेइ परमेश्वर वलिया स्वीकार करियाछेन ।
SR No.010036
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamnibhushan Bhattacharya
PublisherParshwanath Jain Library Jaipur
Publication Year
Total Pages207
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size5 MB
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