SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४४ राय धनपतसिंह बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग तेतालीस-(४३)मा. (अर्थ.) हवे चोथु षड्जीवनिका नामक अध्ययन कहे . ए अध्ययननो श्रा प्रमाणे संबध डे केः-पूर्वोक्त कुलकाचारकथानामक अध्ययनमां कडं के, साधुए धृति जे राखवी ते आचारने विषेज राखवी, परंतु अनाचार विषे राखवी नहीं. ते आचार जे बे, ते घणुं करीने षड्जीवनिकायने आश्रयेंज , कडं ठे केः- “उसु जीवनिकाएसु, जे बुहे संजए सया ॥ सो चेव होइ विमेए, परमळेण संजए ॥१॥” इति. माटे षड्जीव निकायनुं व्याख्यान करवू जोश्यें. एवा सं बंधथी आ अध्ययननी प्राप्ति थई. आ अध्ययनमा षड्जीवनिकायनुं विनागपूर्वक व्याख्यान कटुंबे, माटे एने षड्जीवनिका एवं नामें करी कहे . हवे सूत्रनो अर्थ ॥ सुयं मे इति. सुधर्मास्वामी जंबूप्रतें कहे . (आउसंतेणं के०) हे आयुष्मन् ! एटले जेने परिपूर्ण आयुष्य जे एवा हे शिष्य ( मे के०) मया एटले में ( सुयं के) श्रुतं एटले सांजदयु , के (नगवया के०) लगवता, जगशब्द करी परिपूर्ण एवा ऐश्वर्य, रूप, कीर्ति, श्री, धर्म अने प्रयत्न ए वस्तु लेवी. कछु बे के, “ ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः॥ ज्ञानवैराग्ययोश्चापि, षमा लग श्तीङ्गना ॥१॥” ते जेमने बे, तेमने नगवान् कहिये. अर्थात् ऐश्वर्या दिक उ वस्तु जेमनी पासे परिपूर्ण एवा श्रीमहावीरस्वामीए ( एवं के) वदयमाणप्रकार (अकायं के ) आख्यातं एटले केवलज्ञानथी जाणीने कडं ने के, (इह के०) ए दशवकालिक सूत्रनेविषे ( खलु के ) निश्चयें करी (जीवणियाणामायण के ) षड्जीवनिकानामक अध्ययन बे. एमां शिष्यने आमंत्रण करवामाटे वा जु पद न लेतां ' आजसंतेणं' एज पद लीधुंबे, तेनुं तात्पर्य ए बे के, गुणवान् ज शिष्य , तेनेज आगमनुं रहस्य केहq, बीजाने केहबुं नही, कयु के केः- "श्रा मे घडे निहितं, जहा जलं तं घडं विणासे ॥ इथ सिझंतरस्स, अप्पाहारं विणातर ॥१॥ इति ॥” माटे योग्य शिष्यनेज कहे जोश्य तो शिष्यना गुण जब तेमां आयुष्य जे ते प्रधान गुण बे, कारण के, तेनो अनाव होय तो बाजा बधी सामग्रीनो कांश उपयोग नथी, माटे "आयुष्मन् ” एम. संबोधन कह्यु. अथवा आजसंतेणं ए जगवंतनुंज विशेषण करवं. ते एवीरीतेः- आयुष्मता एटले चर जीव एवा जगवाने एम कडं . इति. अथवा (आवसंतेणं के) आवसता एटा गुरुकुलने विषे वास करनारा एवा (मे के० ) मया एटले में सांजव्युं डे. एका अर्थ करवो. तेथी एम सूचवे ने के, शिष्ये गुरुकुलने विषे रहीने निरंतर गुरुच रणनी सेवा करवी, अथवा (आउसंतेणं के०) आमृशता एटले नगवत्पादारविदयुगलनेविषे मस्तकें करी स्पर्श करनारा एवा में सांजदयु बे. एवो अर्थ करवा.
SR No.010035
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorSamaysundar, Haribhadrasuri
Author
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1900
Total Pages771
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy