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________________ चतुर्थ अध्याय आचार्य द्विवेदीजी की सम्पादन-कला एवं भाषा-सुधार सामान्यतः ‘सम्पादक' शब्द का प्रयोग उस व्यक्ति के लिए होता है, जो दूसरों द्वारा भेजी गई लिखित सामग्री में आवश्यक काट-छाँट कर उसे प्रकाशनार्थ पुस्तक, पत्र या पत्रिका के रूप में संयोजित करता है। परन्तु सम्पादक के कार्य की यहीं इति नहीं हो जाती है। अपनी व्यापक पृष्ठभूमि तथा महान् उद्देश्यों के आलोक में सम्पादक केवल एक आदर्श संग्राहक नहीं रह जाता है। कुछ लोगों की यह धारणा है कि सम्पादक की स्थिति उस माली के समान है, जो जगह-जगह से फूलों को चुनकर उनका एक सजा हुआ गुलदस्ता पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर देता है । दैनिक 'आज' के यशस्वी सम्पादक बाबूराव विष्णु पराड़कर ने 'सम्पादक' की कल्पना एक मेमार अथवा मिस्त्री के रूप में की है : ___"ईट, पत्थर, चूना, लोहा-लक्कड़ सबका एक ढेर और उन्हीं पदार्थों से बनाया हुआ एक मन्दिर, इनमें अन्तर है। ईट बनानेवाले, संगतराश, लुहार, बढई सबने अपनी-अपनी कला दिखा दी, पर वह ढेर-का-ढेर ही रह गया-मन्दिर न हो. सका। यह काम मेमार का है।"१. ___ इसी तरह, विभिन्न लेखकों द्वारा विभिन्न विषयों एवं विधाओं पर लिखी हुई रचनाओं का सुन्दर संयोजन सम्पादक करता है। कहानी, कविता, समीक्षा, नाटक, जीवनचरित तथा अन्य विषयों पर आश्रित सामग्री को सुचारु रूप देने के माथ ही प्रत्येक रचना को व्याकरण-सम्मत, कलात्मक और प्रभावपूर्ण बना देना सम्पादक का ही कार्य है। कुल मिलाकर, एक सम्पादक कला का निर्माता भी है, निर्माण का प्रेरक भी है और निर्मित कला को प्रभावशाली बनाता है। अपने इस साधारण-से प्रतीत होनेवाले कार्य की पृष्ठभूमि में सम्पादक अपने समसामयिक समाज एवं साहित्य की गतिविधियों तथा प्रवृत्तियों का नियमन करता है। श्रीबाँकेविहारी भटनागर ने लिखा है : "अच्छी भाषा और अच्छे साहित्य के माध्यम से अच्छे समाज के विकास में सम्पादक का बहुत बड़ा हाथ होता है और वह यह कहकर अपने उत्तरदायित्व से १. श्रीबाबूराव विष्णु पराडकर : "सम्मादक आचार्य द्विवेदी', 'साहित्य-सन्देश', द्विवेदी-अंक। ,
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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