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________________ जीवनवृत्त एवं व्यक्तित्व [ ३३ अवधी में कविताएँ लिखकर अपने को महाकवि समझने लगे थे। परन्तु, झाँसी आने पर उन्हें जब खड़ी बोली के तुकान्तहीन काव्य का परिचय मिला, तब वे इस दिशा में उन्मुख हुए। वे धीरे-धीरे गद्य में समालोचनाएँ भी लिखने लगे। जब वे झाँसी में थे, तभी वहाँ के तहसीली स्कूल के एक अध्यापक ने उन्हें कोर्स की एक पुस्तक दिखलाई और उक्त 'तृतीय रीडर' के कुछ दोष बताये । जब द्विवेदीजी ने उक्त रीडर को स्वयं देखा, तब और भी कुछ दोष सामने आये। रीडर को इलाहाबाद के इण्डियन प्रेस ने प्रकाशित किया था। उक्त अध्यापक महोदय के प्रयास से द्विवेदीजी की उस रीडर पर लिखी हुई समालोचना पुस्तकाकार होकर इण्डियन प्रेस से ही छपी। इस समालोचना के माध्यम से द्विवेदीजी का परिचय इण्डियन प्रेम से हुआ । जब इण्डियन प्रेस से सन् १९०० ई० में 'सरस्वती' मासिक का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, तब द्विवेदीजी की कविताएँ एवं समालोचनाएँ भी उसमें छपने लगी। अपनी इन्ही साहित्यिक गतिविधियों के बीच उन्होंने रेलवे की नौकरी का परित्याग किया। नौकरी छोड़ते समय द्विवेदीजी की मासिक आय डेढ़ सौ रुपयों की थी। उस समय लेख आदि भेजने के पारिश्रमिक-स्वरूप 'सरस्वती' की ओर से उन्हें जो तेईस रुपये मिलते थे, उन्ही पर सन्तुष्ट जीवन बिताने का निश्चय उन्होंने किया। नौकरी छूट जाने के बाद कष्ट के उन दिनों में कई मिन्नों ने अनेक प्रकार के प्रलोभन दिये। परन्तु, द्विवेदीजी ने किसी की भी सहायता नहीं ली। सन् १९०३ ई० में इण्डियन प्रेस के स्वामी श्रीचिन्तामणि घोष के आग्रह एवं तत्कालीन 'सरस्वती'-सम्पादक बाबू श्यामसुन्दरदास के समर्थन पर आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' के सम्पादन का भार ग्रहण किया। उस समय उन्हें इण्डियन प्रेस की ओर से अधिक पैसे नहीं मिलते थे । परन्तु, जैसे-जैसे 'सरस्वती' का प्रचार बढ़ता गया, वैसे-वैसे उनकी आय भी बढ़ती गई। शीघ्र ही उनकी मासिक आय उतनी ही हो गई, जितनी रेलवे की नौकरी छोड़ते समय थी। उन्होंने पूरे प्राणपण से 'सरस्वती' का सम्पादन किया। यह कार्य वे सन् १९०४ ई० तक झाँसी से करते रहे। बाद में वे वहाँ से कानपुर चले गये। परिश्रम की अधिकता ने उनके स्वास्थ्य पर पर्याप्त बुरा प्रभाव डाला। इसी अस्वस्थता के कारण उन्हें सन् १९१० ई० में पूरे एक वर्ष की छुट्टी 'सरस्वती' से लेनी पड़ी। इसी वर्ष उनकी माँ का देहावसान भी हुआ। सत्रह वर्ष तक सम्पादक रहने के पश्चात् सन् १९२१ ई० में उन्होंने इस कार्य से अवकाश ग्रहण किया। अपने जीवन के शेष वर्ष द्विवेदीजी ने अपने गांव दौलतपुर में ही बिताये । इस बीच कुछ समय तक वे ऑनरेरी मुसिफ रहे और बाद में ग्राम-पंचायत. के सरपंच-पद पर सुशोभित हुए । इन सबके बावजूद उनका निजी पारिवारिक जीवन सुखी नहीं था। माता-पिता के देहावसान के पश्चात् जब द्विवेदीजी की धर्मपत्नी
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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