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________________ ३२ ] आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पड़कर अपना अधिकांश समय आराम से सोने मे अथवा क्लबों मे बिताया करते थे। द्विवेदीजी दिन-भर अपना काम करने के बाद रात मे साहब के पत्रों, तारों आदि के उत्तर दिया करते थे। इस शारीरिक एवं आत्मिक कष्ट को वे किसी भाँति सहते गये। परन्तु, साहब के अत्याचार का अन्त नहीं हुआ। इसके स्थान पर उसने द्विवेदीजी के माध्यम से औरों पर भी काम का अधिक भार डालना चाहा। उस समय की परिस्थितियों के बारे में स्वयं द्विवेदी जी ने लिखा है : "मैं यदि किसी के अत्याचार को सह लूगा, तो उससे मेरी सहनशीलता अवश्य सूचित होती है, पर उससे मुझे औरों पर अत्याचार करने का अधिकार नहीं प्राप्त हो जाता। परन्तु, कुछ समयोत्तर बानक ऐसा बना कि मेरे प्रभु ने मेरे द्वारा औरों पर अत्याचार करना चाहा। हुक्म हुआ कि इतने कर्मचारियों को लेकर रोज सुबह आठ बजे दफ्तर आया करो और ठीक दस बजे मेरे कागज मेरी मेज पर मुझे रखे मिले। मैंने कहा, मैं आऊँगा, पर औरों को आने के लिए लाचार नहीं करूंगा। उन्हें हुक्म देना हुजूर का काम है। बस, बात बढ़ी और विना किसी सोच-विचार के मैने इस्तीफा दे दिया। बाद को उसे वापस लेने के लिए इशारे ही नहीं, सिफारिशें तक की गई। पर सब कुछ व्यर्थ हुआ । क्या इस्तीफा वापस लेना चाहिए, यह पूछने पर मेरी पत्नी ने विषण्ण होकर कहा-'क्या थूककर भी उसे कोई चाटता है ?' मै बोला, 'नहीं ऐसा कभी नहीं होगा, तुम धन्य हो ।' १ __इस तरह, द्विवेदीजी की रेलवे में की गई नोकरी का अन्त हुआ। वह सम्भवतः सन १९०२ ई० की घटना है। रेलवे की सेवा में द्विवेदीजी ने जितने वर्ष विताये, उनकी अधिक विस्तृत एवं तथ्यपूर्ण जानकारी शोधकर्ताओं को नहीं मिल सकी। इस सम्पूर्ण विवरण का मुख्य आधार द्विवेदीजी का आत्मकथन ही है। रेलवे में काम करने की अवधि ने द्विवेदीजी के मस्तिष्क एवं चरित्र पर जो प्रभाव डाले हैं, उनका अपना विशिष्ट महत्त्व है। इसी अवधि में द्विवेदीजी साहित्य-जगत में अपने प्रवेश की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे थे। नौकरी करते समय भी उन्होंने अपनी अधूरी शिक्षा को पूर्ण करने का प्रयत्न नहीं छोड़ा था। वे स्वयं अथवा शिक्षक रखकर हिन्दी, उर्द, संस्कृत, अँगरेजी, मराठी और गुजराती के साहित्य का ज्ञान प्राप्त करते रहे। हरदोई, हुशंगाबाद, नागपुर, झाँसी आदि सभी जगहों पर उन्होंने अपना विद्याध्ययन जारी. रखा । हुशंगाबाद में ही कचहरी के एक मुलाजिम बाबू हरिश्चन्द्र कुलश्रेष्ठ से पिंगल का ज्ञान प्राप्त किया। इस समय द्विवेदीजी व्रजभाषा और १. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : 'मेरी जीवनरेखा', 'भाषा' (द्वि० स्मृ० अंक), पृ० १५।
SR No.010031
Book TitleAcharya Mahavir Prasad Dwivedi Vyaktitva Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShaivya Jha
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year1977
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size26 MB
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